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Wednesday 19 August, 2020

कहानी: नशे की छांव/कहानीकार अशोक कुमार वर्मा 'बिंदु'

 

     रमन छ: वर्ष का एक बालक,जो कक्षा दो मेँ पढ़ता था.विद्यालय से आकर वह
अपना वस्ता अल्मारी मेँ रख हाथ पैर धोकर अपनी मां के पास पहुंच गया और
बोला-"मम्मी,खाना परस दो."

रमन ने भोजन खाना ही शुरु किया कि अपने पिता को एक कमरे से बाहर निकलते
देख वह बोला-"पापा,सर फीस जमा करने को कहते थे."


  "ऐ रम्मन्ना!" - लड़खड़ाते हुए रमन का पिता चीखा.


  उसका पिता नशे में था. वह आया और भोजन की थाली पर ठोकर मार दी.रमन को
उठा कर चारपायी पर पटक दिया .

    "पढ़ना लिखना कुछ भी नहीं.फीस फीस फीस....!"



       "अपना नशा अपने पास रखा करो . "  - रमन की मां बोली.


          "ये,तू क्या पिटेगी?"


           "आ........आ........!" -रमन का गला बंद हो गया . उसकी माँ
तुरन्त गिलास मेँ पानी ले रमन के पास पहुँची और रमन का गला व सीना सहलाते
हुए पानी पिलाने लगी . कुछ समय बाद रमन ने राहत की साँस ली .



    *            *           *


 रात्रि के बारह बज रहे थे.


रमन का पिता कालोनी के लड़कों व युवकों के साथ जुआँ खेल रहा था.



और रमन.....!?



रमन चारपायी पर खड़ा हो खिड़की से बाहर झांक रहा था.बाहर बरामडे मेँ उसका
पिता अन्य लड़कों व युवकोँ के साथ जुआं खेल रहा था.



 वह सोंचने लगा-विद्यालय मेँ प्रर्थना बाद जब पहला पीरियड लगा तो
क्लासटीचर रजिस्टर लेकर क्लास मेँ आते आते ही रमन को देख कर बोले-"रमन,तू
फिर आ गया आज.तुझे कितनी बार कहा कि फीस लेकर आना या फिर मम्मी या पापा
को साथ लेकर आना ."



     रमन झुंझला कर चीख पड़ा-

"कहता तो हूँ रोज घर पर.मैं क्या करुँ?निकाल दो मुझे क्लास से.रोज रोज फीस फीस."



फिर रमन रोने लगा.


और ऊपर से रमन के पास जाकर क्लासटीचर ने उसके गाल पर एक तमाचा मार दिया.


  "मार लो,मार लो,और मार लो."


      रमन को लेकर क्लासटीचर प्रिन्सिपल आफिस पहुँच गया.जहां मैं बैठा
प्रिन्सिपल से बात कर रहा था.मैं प्रकरण को जानता था.मन ही मन वौखलाहट से
भर गया,इन नन्हेँ मुन्ने बच्चों को कितना कष्ट होता है?इनकी कोमलता का
एहसास किसे है?


  "रमन,यहां आओ." - मैने रमन का हाथ खींच कर उसे अपने पास खड़ा कर लिया.


   "मैने कितनी बार समझाया है- रमन? परेशान न हुआ करो."



     "मैं क्या करुँ?"


      "आपको कुछ भी करने की जरुरत नहीं है?"


    मैने प्रिन्सिपल की ओर देख कर कहा-"आपसे मैं कह चुका हूँ . अभिभावकों
के व्यवहारों की सजा बच्चों को देना ठीक नहीं."क्लासटीचर से प्रिन्सिपल
बोले-"आपने इसके घर पर जाकर सम्पर्क किया?"


  "नहीं!क्या करुं जाकर वहाँ ?इसके पिता जी.... ."


   "मार तो डालेंगे नहीँ.यही बात है तो दो तीन अन्य अध्यापकों को लेकर
जाओ . अच्छा रमन, आप क्लास में जाओ."


  रमन क्लास मेँ आ गया.


      *          *          *



      " हा.......हा.........! "-सब ठहाके लगा रहे थे.रमन का पिता लोगों
के साथ नशे में होते हुए भी शराब पिए जा रहा था.


    कि -


रमन के पिता ने जब अपने होंठों पर अंगुली रख दी तो सब चुप हो गये.अब रमन
का पिता कमरे के अन्दर से आ रही रमन की आवाज को सुनने
लगा-"पापा-पापा-फीस!"


    रमन के पिता ने उठ कर खिड़की से झांका , रमन सो रहा था.


    "साला,स्वपन में भी फीस फीस रटता है."


   फिर वह कमरे की ओर चल दिया.



    "पापा,फीस.बच्चे भी मजाक बनाते हैं."


       अन्दर जा कर रमन के पिता ने रमन को झकझोर दिया और-
"साला!सपने में भी फीस....फीस... ."


रमन की मां चीख पड़ी-

"जाओ यहाँ से.खुद सोते नहीं औरों को भी नहीं सोने देते ."


रमन का पिता खामोश हो कमरे से बाहर निकल गया.


कहानीकार:अशोक कुमार वर्मा 'बिंदु'

Sunday 19 April, 2020

जब नक्सलवाद पैदा हुआ था तो उसका अहिंसक आंदोलन से उम्मीद जगी थी जो न्याय को प्रेरित करती,लेकिन नक्सली हिंसा ने सब खेल बिगाड़ दिया::विलियम थॉमस!!

नक्सली आंदोलन 1967 से 2017 तक
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नक्सलवाद की उम्र 50 साल हो रही है पर इस पर काबू पाने में सरकारें नाकाम रही हैं. इस की वजहें हैं जिन का सीधा संबंध एकतरफा विकास से है. आजादी के बाद आम लोगों और किसानों को उम्मीद बंधी थी कि अब गांवगांव तक सड़क, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं और बिजली होगी लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो यह वर्ग मानने लगा कि पैसे वाले देखते ही देखते पैसे वाले होते जा रहे हैं और गरीब और गरीब होता जा रहा है.
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पर तब ऐसा सोचने वाले असंगठित थे. साल 1967 में बंगाल के एक गांव नक्सलवाड़ी से इस एकतरफा विकास के खिलाफ पहली सशक्त क्रांति हुई थी. इसलिए इस क्रांति का नाम नक्सलवाद पड़ गया. नक्सलवाद के जनक थे भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के चारू मजूमदार और कानू सान्याल, जिन की मुलाकात इत्तफाक से जेल में हुई थी. उन दोनों का मानना था कि किसानों और मजदूरों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियां और लोकतांत्रिक व्यवस्था जिम्मेदार है.
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सशस्त्र हिंसा फैली तो देखते ही देखते शोषित और वंचित लोग नक्सलवाद को लाल सलाम ठोंकने लगे. 50 सालों में नक्सली आंदोलन काफी बदला भी है. आज घोषित तौर पर उन का कोई नेता नहीं है और वे खुद कई दलम (दलों) में बंट गए हैं पर उन का मकसद आज भी ज्यों का त्यों है. कुछ वैचारिक मतभेदों के चलते चारू मजूमदार और कानू सान्याल अलग हो गए थे. चारू मजूमदार की मौत 1972 में ही हो गई थी जबकि कानू सान्याल ने साल 2010 में फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली थी.
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उम्मीद से कम वक्त में नक्सलवाद पश्चिम बंगाल से होता आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड और ओडिशा में फैला. आज हालत यह है कि आंशिक और पूरी तरह से नक्सलप्रभावित राज्यों की संख्या 10 और जिलों की संख्या 190 है. फर्क इतना है कि कहीं नक्सली गतिविधियां न के बराबर हैं तो कहीं उम्मीद से ज्यादा हैं.
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आज के नक्सली किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित नहीं रह गए हैं और न ही पहले की तरह लोकतंत्र को कोसते हैं. इस की एक बड़ी मिसाल आदिवासी क्षेत्रों में भाजपा को मिलती सफलता है जो 20 साल पहले आदिवासी वोटों के लिए तरस जाती थी. कम्यूनिस्ट विचारधारा के होते हुए भी नक्सली आमतौर पर धार्मिक संगठनों को तंग नहीं करते.
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अब नक्सलियों का असल मकसद उन सरकारी योजनाओं में अड़ंगा डालना है जो उन्हें जंगलों को खत्म करती लगती हैं. सड़कें बनेंगी तो आदिवासी जंगलों से बेदखल हो जाएंगे और जंगलों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा हो जाएगा. नक्सली अब इसी आशंका में सोते और जागते हैं और जब भी मौका मिलता है, हिंसा को अंजाम दे देते हैं. सरकार ने नक्सलप्रभावित इलाकों को छावनी सा बना दिया है जिस से नक्सलियों को खास चिढ़ है.
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उधर, आदिवासी भी सैन्यबलों से परेशान हैं. इसलिए वे नक्सलियों का साथ देते हैं. हर तरह की सूचना नक्सलियों के पास कैसे पहुंच जाती है, यह किसी को नहीं पता और न ही यह कि आम आदिवासी कैसे नक्सलियों को फंडिंग करता है. उलट इस के, सरकार या किसी और को तो रत्तीभर भी नहीं मालूम कि नक्सली किस जगह से अपनी मुहिम को अंजाम देते हैं, अब उन का नेता कौन है और आगे वे क्या करेंगे.
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नक्सली हिंसा के अर्थों और अनर्थ से दूर सिरदर्द की बात सरकार के लिए यह है कि वह भले ही लोकतंत्र व समानता का राग अलापती हो, लेकिन अभी तक वह आदिवासियों का भरेसा नहीं जीत पाई है. यह बात बस्तर सहित दूसरे नक्सलप्रभावित राज्यों में साफसाफ दिखती भी है कि अभी तक आदिवासी अंचलों का अपेक्षित विकास नहीं हुआ है. नक्सली इस बात के लिए सरकार को ही जिम्मेदार मानते हैं.
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हिंसा की छोटीबड़ी वारदातें होती रहेंगी, नक्सली दहशत कायम रहेगी, बेगुनाह आदिवासी मारे जाते रहेंगे और उन के साथ में जवान भी. लेकिन सरकार कुछ नहीं कर पाएगी. ऐसे में हल क्या है और कैसे होगा, यह कोई नहीं सोचता. सरकार भी हिंसा का जवाब हिंसा से दे कर नक्सलियों को उकसाती ही लगती है. अब थोक में बेरोजगार आदिवासी युवा और औरतें नक्सली संगठनों में शामिल हो रहे हैं क्योंकि सरकार उन्हें शिक्षा व रोजगार नहीं दे पा रही.


https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1508418409320732&id=100004577621289




 




Monday 9 March, 2020

हमें तुम्हारे धर्म समझ में ही नहीं आते:::अशोकबिन्दु

समाज में धर्म नहीं होता भीड़ में धर्म नहीं होता धर्म तो व्यक्ति के नजरिया में होता है धर्म तो व्यक्ति की सोच में होता है!!!

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धर्म शब्द संस्कृत की ‘धृ’ धातु से बना है जिसका अर्थ होता है धारण करना । परमात्मा की सृष्टि को धारण करने या बनाये रखने के लिए जो कर्म और कर्तव्य आवश्यक हैं वही मूलत: धर्म के अंग या लक्षण हैं । उदाहरण के लिए निम्न श्लोक में धर्म के दस लक्षण बताये गये हैं :-

धृति: क्षमा दमो स्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह: ।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।

विपत्ति में धीरज रखना, अपराधी को क्षमा करना, भीतरी और बाहरी सफाई, बुद्धि को उत्तम विचारों में लगाना, सम्यक ज्ञान का अर्जन, सत्य का पालन ये छ: उत्तम कर्म हैं और मन को बुरे कामों में प्रवृत्त न करना, चोरी न करना, इन्द्रिय लोलुपता से बचना, क्रोध न करना ये चार उत्तम अकर्म हैं ।

अहिंसा परमो धर्म: सर्वप्राणभृतां वर ।
तस्मात् प्राणभृत: सर्वान् न हिंस्यान्मानुष: क्वचित् ।

अहिंसा सबसे उत्तम धर्म है, इसलिए मनुष्य को कभी भी, कहीं भी,किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए ।

न हि प्राणात् प्रियतरं लोके किंचन विद्यते ।
तस्माद् दयां नर: कुर्यात् यथात्मनि तथा परे ।

जगत् में अपने प्राण से प्यारी दूसरी कोई वस्तु नहीं है । इसीलिए मनुष्य जैसे अपने ऊपर दया चाहता है, उसी तरह दूसरों पर भी दया करे ।

जिस समाज में एकता है, सुमति है, वहाँ शान्ति है, समृद्धि है, सुख है, और जहाँ स्वार्थ की प्रधानता है वहाँ कलह है, संघर्ष है, बिखराव है, दु:ख है, तृष्णा है ।

धर्म उचित और अनुचित का भेद बताता है । उचित क्या है और अनुचित क्या है यह देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर करता है । हमें जीवनऱ्यापन के लिए आर्थिक क्रिया करना है या कामना की पूर्ति करना है तो इसके लिए धर्मसम्मत मार्ग या उचित तरीका ही अपनाया जाना चाहिए । हिन्दुत्व कहता है -

अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वत: ।
नित्यं सन्निहितो मृत्यु: कर्र्तव्यो धर्मसंग्रह: ।

यह शरीर नश्वर है, वैभव अथवा धन भी टिकने वाला नहीं है, एक दिन मृत्यु का होना ही निश्चित है, इसलिए धर्मसंग्रह ही परम कर्त्तव्य है ।

सर्वत्र धर्म के साथ रहने के कारण हिन्दुत्व को हिन्दू धर्म भी कहा जाता है ।

Sunday 8 March, 2020

गुणवत्ता के संवाहक......

संवाहक!
""""""""'"'"'''''
किसी ने कहा है कोई कौम  इस बात पर जिंदा रहती है कि उस कौम में कौम पर मरने वालों की संख्या कितनी रही है?इस लिए हमें गुणवत्ता के लिए जान देकर भी सतर्क रहना चाहिए।इसलिए ठीक कहा गया-मृत्यु है आचार्य।तो किसी ने योग के आठ अंग में से पहला अंग यम को भी मृत्यु से जोड़ा । अफसोस है आज कल स्कूल, विद्यार्थी, शिक्षक, अभिवावक ही ज्ञान स्थिति के हिसाब से वातावरण व गुणवत्ता के लिए जीना नहीं चाहते।
कमलेश डी पटेल दाजी ने ठीक कहा है-शिक्षा कमजोर दिल वालों के लिए नहीं है। आज हम जहां पर खड़े हैं,उसके लिए हमारी आत्मा व आत्माओं का योगदान महत्वपूर्ण है,किसी को ये दिखाई न दे तो हम क्या करें?
ध्यान रखो, क्रांति हाड़ मास शरीर के रंगरूप,कद काठी, जाति मजहब,अमीरी गरीबी......आदि भौतिकताओं के कारण नहीं हुई।अनेक देश ऐसे हैं जहां छोटे बच्चे भी कहते हैं हमारा लक्ष्य है देश व समाज की रक्षा करना ।लेकिन समाज व देश की रक्षा उस देश के व्यक्तियों ,प्राणियों, वनस्पति आदि के सम्मान के साथ महापुरुष की नजर में चरित्र गढ़ने से है।वर्तमान समाज व सामजिकता के नजर में चरित्र गढ़ने से नहीं।


08मार्च महिला दिवस:: नारी वाद नहीं वरन सम सहअस्तित्व /सम सह सम्मान/आत्म निर्भरता का सम अवसर

                नारी के सम्मान में अब उत्तराधिकार नियम पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। जो दम्पत्ति दो या एक सिर्फ बेटी ही रखते हैं, उनके लिए स्पेशल सरकारी सुविधाएं की व्यवस्था आबश्यक है।

                  नारी सशक्तिकरण का मतलब क्या  है?  नारी क्या है?  नारी सिर्फ स्थूल शरीर है स्थूल जगत में.?पुरुष क्या है?स्थूल में पुरुष स्थूल शरीर है?अर्थात प्रकृति  में ही नर मादा हैं.अध्यात्म में आत्मा/परमात्मा पुरुष  है  व  प्रकृति स्त्री है.यहां पर श्री अर्धनारीश्वर अवधारणा के पीछे छिपे दर्शन  को समझना आवश्यक है.दोनों  के बीच समअस्तित्व आबश्यक है..जब बात सम अस्तित्व की हो जहां पर, वहां नारी सशक्तिकरण या पुरुष सशक्तिकरण  से क्या मतलब है ?दोनों का सशक्ति करण आवश्यक है अर्थात दोनों  के बीच समसम्मान व समस्तित्व आबश्यक है. लेकिन आज  के भौतिक भोग वादी सोंच में ये असम्भव है. दोनों का परस्पर अंहकार वादी होना व दोनों  के बीच तू तू में में होना विकार वान  है.

नारी सशक्ति करण  के गुण

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नारी सशक्तिकरण का मतलब नारीवाद  नहीं है.वरन् नारी को आत्मनिर्भर बना पुरुष  के बराबर में ला खड़ा करना है.पुरुष  के बराबर  ला खड़ा  करने  का मतलब है-- आत्मनिर्भर  हो कर समाज के विकास  में सहभागिता न कि पुरुष के साथ टकराव खड़ा करना
या  पुरुष के समक्ष समस्या खड़ी करना.स्त्री पुरुष के  बीच करीबी भ्र्म की दीवार टूटना.लैंगिक असमानता का विरोध.परस्पर मित्रभाव/सम्मान को बढ़ावा.इस बात का ज्ञान होना कि नर मादा तो हम सिर्फ प्रकृति में हैं.ब्रह्म जगत में हम सब आत्मा  है.हमारा स्थूल शरीर तो सिर्फ प्रकृति है.प्रकृति तो स्त्री ही है. नारी सशक्तिकरण ने उस समाज को सोचनें  को विवश कर दिया है जो सोचता था कि स्त्री तो दमन/दण्ड/दवाव/मनमानी/आदि के लिए है.
 नारी सिर्फ अपने स्थूल व सूक्ष्म(भूत/प्रेत) शरीर से ही नारी है.अपने भाव व मनस शरीर से वह पुरुष  ही है.जब उसे उसके भाव व मनस स्तर का पुरुष इस जगत में नहीं मिलता तो वह अपनी सम्पूर्णता को  नहीं पाती.या फिर वह तटस्थ हो आत्मा को पा जाये.जहां आत्मा अलिंगी  होती  है.

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स्तर | प्राकृतिक  | साधना
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स्थूल|काम  |   ब्रह्मचर्य
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भाव  |भय    | अभय
         |घृणा  | प्रेम
         |क्रोध  | करुणा
         |हिंसा  | मैत्री
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सूक्ष्म  |सन्देह  | श्रद्धा
          | बिचार| विवेक
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मनस |कल्पना|सङ्कल्प
         |स्वप्न   |अतीन्द्रिय
         |           | दर्शन
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 हमारे अंदर भी नगेटिव पजटिव अर्थात स्त्री पुरुष अर्थात प्रकृति ब्रह्म होता है.अतः योग से हम आंतरिक सम्भोग  की दशा  भी  पा सकते है.
 नारी अपने अस्तित्व को पहचाने.अपने को पहचाने. उसकी भोग वादी नीतियां उसका सम्मान नहीं बड़ा सकतीं.वह सिर्फ हड्डी मांस का बना शरीर नहीं है.ऐसे में सिर्फ हड्डी मांस के बने शरीर की आवश्यकताओं  के  लिए  जीने से उसे सम्पूर्णता प्राप्त नही हो सकती.

 नारी सशक्तिकरण के दोष
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आज के आधुनिक भौतिक भोगवाद में नारी का सशक्तिकरण कुल/संस्था/समाज में अनेक विकार ला रहा है.विभिन्न शोध कह  रहे हैं कि 90 प्रतिशत से ज्यादा दहेज एक्ट केस फर्जी होते हैं.वे निरर्थक एक्ट का दुरूपयोग हौते  हैं.आज अनेक परिवारों के अध्ययन से समाजशास्त्रियों  को ज्ञात हो रहा है कि परिवारों के विखरने / वुजुर्गो के उपेक्षा का कारण स्त्री ही है. आज स्वयम नारी ही अपने  को भूल रही है कि हम कौन हैं?हम सिर्फ हड्डी मांस का बना शरीर नहीं है?नारी व पुरुष क्या है?उसे सिर्फ स्थूल निगाह से देखना अपूर्णता है.पूर्णता बिन सन्तुष्टि कैसे? नर नारी प्रकृति में ही हैं.अपने को प्रकृति से परे  भी जानना अति आबश्यक है.जो कि शाश्वत/अनन्त/अमोघ  है..जो क्षयवान/क्षणिकहै उससे असीम/सदैव भर का आनन्द कैसे?हमारा नजरिया ही हमारे हालातों  के लिए दोषी  होता है.दरअसल हम अपने से ही दूर होते जा रहे हैं.हमारी आत्मा अलिंगी  है.हमारा शरीर स्त्री क्यों है?

   आज स्त्री ही स्त्रैण गुणों से दूर  होती  जा रही है.स्त्रैण गुण क्या है?स्त्री को मातृ शक्ति  क्यों कहा गया है? प्रकृति को स्त्रीया अपने स्थूल शरीर  को भी स्त्री क्यों कहा गया है?सांसारिक/कृत्रिम बस्तुओं  को पूजने  से पहले/कन्या पूजन से पहले इन सवालों  को। जानना आवश्यक  है?

आदिकाल से अब तक जगत को  जो नारी सम्माननीय रही हैं, उनके जीवन दर्शन  को जानना जरूरी  है. बिचारों को अपना नजरिया बनाना आबश्यक  है.आज तुम बात बात पर धमकिया दिखती फिरती हो. जरा महान नारियों की ओर तो देखो. रुपयों के लिए नाचने गाने वालियों / अंग प्रदर्शन करने वालियों की नकल करना बन्द करो.किरण बेदी/कल्पना चावला/आदि से प्रेरणा लो.उनका नजरिया/विचार दर्शन जानो,उसे अपना नजरिया बनाओ.अपनी प्रतिभा सें किसी प्रकार  का समझौता  न करो.चरित्र क्या है ?इसको जानो.समाज की नजर में नहीं,महान नारियों  की नजर  में जियो,लिंग भेद की मानसिकता त्यागो.
नारी को भी पुरुषों  की भांति आत्मनिर्भर  होना चाहिए.हाँ,ये सत्य ऐसे में उसे आधा संघर्ष नारी होने  के नाते करना होगा. लेकिन ये सत्य  है कि कानून/मानवता का साथ लेकर यदि ईमानदारी से संघर्ष करे तो वह अवश्य सफल  होगी.सशक्त नारी भी आज कुल व समाज  में  समस्या नजर आ रहीं है.कुल में जहां वह शादी के बाद जाती है,वहां वह पूरे कुल की उम्मीदों से बन्धी होती है,कुल की भी कुछ मर्यादाएं  होती हैं.क्यों न वह घर  में कितनी भी रुपया लाती  हो लेकिन बुजुर्ग सास ससुर,नन्द आदि  की  उम्मीदें  भी होती  हैं. सबकुछ रुपया ही नहीं होता.शादी करने का मतलब "मैं" खत्म हो जाना चाहिए. मैं--तू में हम जीवन के आनन्द से दूर  होते  जाते  हैं.तू तू में में में पर उतर  आते है.हमें  जो उपलब्ध होता ह,उसको। ही हम सहजता  में नही नही जी पाते.हमारे सनातन विद्वानों ने तो शादी का उद्देश्य "धर्म" बताया है  न कि "काम".हम सुख दुःख के पाट के बीच पिसते रहते है.आनन्द को नहीं पाना चाहते.आनन्द कैसे मिलता है?इसका ज्ञान ही नहीं?
 एक घटना के हम साक्षात् सबूत हैं.बरेली से एक युवती की शादी बीसलपुर में हो जाती है.ओशो ने कहा है,ठीक कहा है - आज कल "शादी करना" अबैध है.हालांकि शादी एक आवश्यकता है.हाँ,तो वह शादी हो कर अपने ससुराल आ गयी. उसका मन तो बरेली में ही लगा था.बेचारे उसके पति ने उसके सारे ख्बाब पूरे करने की कोशिस करता रहा.वह इसी बात पर अड़ी रही कि  क्यों न बरेली शिफ्ट  हो जॉए?लेकिन शादी का मतलब ये तो नहीं?या तो पहले ही ये तय हो.पति अपने बुजुर्ग माता पिता को छोंड़ बरेली में कैसे शिफ्ट हो जाये?शादी का मतलब "मैं" में जीना नहीं, "हमसब" में जीना है.जैसे तैसे उसने डेढ़ वर्ष काट और फिर जब बरेली गयी बापस नहीं आयी,ऊपर से दहेज एक्ट लगवा दिया.वह अपने यार के साथ स्वछन्द हो जीवन काट रही है.इस तरह का एक केस और एक युवती शादी से पहले ही एक युवक से दिल लगा बैठी,सब जानकारी होने के बाद भी उसके माता पिता ने दूसरी जगह शादी कर दी.वह एक दो बार अपने ससुराल गयी ,फिर मायके में ही रहने लगी.मायके वालों के दवाब पर वह आत्महत्या कर बैठी,ऐसे में बेचारे ससुराल बालों का क्या दोष?ससुराल वालों पर दहेज़ एक्ट थोप दिया गया.,...... इसी तरह हम अन्य सशक्त नारियों को देख रहे है , जो अपने मायके/ससुराल को छोड़ कर तीसरी जगह पर नौकरी के वास्ते रह रहीं है.वे संस्था/आसपड़ोस में क्या गुल खिलाती है?कुछ कहा नहीं जा सकता?

 नारी सशक्तिकरण  व  मानवता
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नारी सशक्तिकरण का मतलब मानवता व लैंगिक समानता को पल्लवित विकसित करना है.नारी को आत्मनिर्भर बनाना है न कि पुरुष समाज / समाज/संस्थाओं में बिकार पैदा करना है.मानवता के लिए हर वाद निरर्थक  है.समसम्मान आवश्यक है.सम अस्तित्व आबश्यक है.क़ानूनी व्यबस्था/मानवता/अध्यात्म आबश्यक  है.निरा कोरा भौतिक भोग वाद विकार पैदा करने वाला है.सन्तुलन ही  जीवन है.

ashok kumar verma "bindu"

Saturday 7 March, 2020

हम कब तक भड़केंगे?कब तक भीड़ का हिस्सा बनेंगे?ईसा सुकरात के गलियारे के अलग अलग खड़े मस्त इंसान को कब सुनोगे?वाद से काम नहीं चलने वाला!!

हमें खुशी होती है!!वर्तमान तन्त्र व नजरिया के रहते हम आप सुधरने वाले नहीं।माल्थस ने कहा था तुम्हारे सोच ,तुम्हारी जाति, मजहब आदि की नहीं चलेगी,कुदरत, आत्मा, परम् आत्मा का तन्त्र तुम्हारे तन्त्र, तुम्हारी सोच, तुम्हारी जातीय मजहबी सोंच को नेस्तनाबूत कर देगा।हमें खुशी है, हम तो कुदरत, आत्मा, परम् आत्मा का साथ चाहते है।भाड़ में जाये तुम्हारी जातीय मजहबी व्यवस्थाएं....
अब भी वक्त है, संभल लो!!
वक्त ऐसा आएगा जब मनुष्यता या तो हा हा कार कर रही होगी या वर्तमान व्यबस्था, सोंच, आस्था आदि को बदल रही होगी
। कुदरत में कुछ भी स्थिर नहीं है
परिवर्तन शील है।परिबर्तन शाश्वत नियम है।आप ने ये कैसे सोच लिया कि हमारी वर्तमान आस्थाएं, सोंच, व्यबस्था के स्तर से ऊपर अन्य स्तर नहीं?अनन्तता गतिशील है। हमारी आत्मा ही हमारी धुरी को हमसे पकड़वा सकती है।मानवता ही व्यबस्था बेहतर दे सकती है।हमें खुशी है कि हम जो चाहते हैं,वह सुनने को भी तैयार नहीं हो?कुरान की शुरुआती आयतें सुनाई नहीं दे रही है, गीता के सन्देश सुनाई नहीं दे रहे है,वेद ले संदेश सुनाई नहीं दे रहे है....पुरोहितबाद, सत्तावाद, जातिवाद, पूंजीवाद आदि की कब तक सुनोगे?वर्तमान नेताओं, पंडितों, मौलबियों आदि की कब तक सुनोगे?कुदरत के खेल के सामने जब सन्नाटा, कोहराम होगा  तब हमें याद करना। श्मसान, कब्रिस्तान में तो जीवन की बडी बडी बातें हो जाती है। वहाँ बड़े बड़े फ्लॉसफ़र नजर आते हैं।लेकिन रोजमर्रे के लम्हों में..???एक आचार्य कहते थे मरने से पहले मर जाओ। कुदरत, आत्मा,परम् आत्मा के सामने अपने शून्य से हो जाओ। हनुमान का सूक्ष्म होना, उनका सूरज निगला.....आदि आपके लिए मजाक या अन्धविश्वास हो सकता है लेकिन  उसको महसूस नहीं कर सकते।अपनी आत्मा व मानवता से दोस्ती कर लो रास्ता कुदरत हमे देती रहेगी। दुनिया को हम नही, मौलबी पंडित नहीं, नेता अफसर नहीं चला रहे... ये अनुभव किया है क्या???तो फिर इनके कारण भड़कते क्यों हो?आत्मा की क्यों नहीं सुनते?मानवता की क्यों नहीं सुनते?भीड़ का हिस्सा क्यों बनते हो?
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सामजिकता के दंश!!
www.ashokbindu.blogspot.com

Tuesday 3 March, 2020

मरना तो है ही, उसकी चिंता क्या करना? हजरत हुसैन /गुरु गोविंद सिंह/ओशो

ओ३म तत सत वाहे गुरु ! जय खालसा महागुरु!! कुछ तो राज है!!
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गुरु गोविंद सिंह में हमें ब्राह्मणत्व व क्षत्रियत्व दोनों के दर्शन होते हैं।वे सिख पन्थ के दशम गुरु थे।गुरु नानक से चला ये पन्थ सद्भावना, प्रेम, मानवता पर आधारित था।समय की मांग ने गुरुगोविंद सिंह में बदलाव किया । ये बदलाव समाज में अत्याचारों के खिलाफ साहस भरने के लिए आवश्यक था।उनका मिशन श्रीमद्भागवत गीता का ही मिशन था- ब्राह्मणत्व व क्षत्रियत्व के सह अस्तित्व को अंदर होने का।
हमने महसूस किया है, जब हम अंतर्मन से इस-"ओ३म तत सत वाहे गुरु!जय खालसा महागुरु !!" ;हम साहस से भर जाते हैं। कुछ तो राज है।हम कहते आये है, शब्दों के पीछे भी सूक्ष्म स्थिति छिपी होती है। गुरु गोविंद सिंह का जीवन समाज में व्याप्त हिंसा, अन्याय आदि के बीच एक प्रेरणा है।हमारी आत्मा हमे शेर बनाती है।हम उसे जगाएं तो....उनके द्वारा सिंह की उपाधि यों ही नहीं दी गयी।पंच प्यारे का प्रकरण याद है न?! जिसका कोई ऐसा लक्ष्य नहीं, जिसके लिए वह मर न सके तो वह का जीवन निरर्थक है। योग का पहला अंग है-यम, हमारा यम है-मृत्यु, त्याग, कुर्बानी।जिसके लिए हम विदेश की धरती पर हजरत हुसैन व ओशो को हमेशा याद करते रहेंगे।
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#अशोकबिन्दु

Tuesday 25 February, 2020

भूत से वर्तमान की ओर!!स्थूल से सूक्ष्म की ओर.......

  हम यदि आंख बंद कर बैठे हैं,और आप चुपके से आकर हमारे पास बैठ जाएं और हमें अहसास न हो तो आप  हम ईश्वर को महसूस करने की ओर कैसे बढ़ेंगे? हम आप तो अभी अपने को ही महसूस नहीं करते हैं। हमने कहीं पर पढ़ा था कि 80 प्रतिशत से ऊपर व्यक्ति भूत योनि/नरक योनि की संभावनाओं में जीता है। हम आपके घर पर आते है, आप हमें आदर से बैठालते है,नाश्ता कराते है, सम्मान से बात करते हैं....आदि आदि। वहीं जब हम ये शरीर त्यागने के बाद  आप के पास आते हैं तो आप डरते है..... ये बात हमें समझ में न आती है। देखा गया है जब कोई मुर्दा में वापस जान आ जाती है तो कुछ लोग डर कर भागते हैं। ये सब क्या है??आप हम अभी जीवन की सम्पूर्णता(आल/अल/all/योग))/आदि) से जुड़े नहीं है।आप चाहें कितने भी अपनी जाति/मजहब पर गर्व करें?अभी आप धर्म/अध्यात्म/वर्तमान/जीवन/आदि में नहीं हैं।आप ईश्वर को महसूस करने की ओर नहीं हैं। हम मालिक के कृपा पात्र हैं,हमें किशोरावस्था से ही इसका अहसास होने लगा।शिक्षा की शरुआत सन्तों के बीच से शुरू हुई, मंदिरों में जाना शुरू किया तो शिक्षा के लिए न कि परम्पराओं को ढोने के लिए।ब्रह्मनाद ने हमें आंख बंद कर बैठने की परंपरा से सिर्फ जोड़ा न कि जातीय/मजहबी रीति रिवाजों, कांडों में। आंख बंद कर हमने कुछ महसूस करना शुरू किया जो हमारे शरीर व मन को आराम देता रहा।,अपने करीब किसी का होने का अहसास करता रहा।यहीं से हम बसुधैव कुटुम्बकम, विश्व बंधुत्व, सागर में कुंभ कुंभ में सागर, अनेकता में एकता...... आदि को महसूस करना शुरू किया।और स्वत:वेदांग के आखिरी अंग ज्योतिष को भी महसूस करना शुरू किया।



          हम सब अभी अपनी निजता/आत्मियता/आत्मा की यात्रा ही शुरू नहीं कर पा रहे हैं। हम अभी अपने अहसास से ही काफी दूर हैं।इससे आगे के पायदान पर कैसे पहुंचेगे? हम लगभग नौ बजे जो साधना करते हैं, वह हमें भेद से अभेद की ओर ले जाती है। हम ने शिक्षा की शुरुआत मन्दिर से की,कुछ वर्षों बाद एक मढ़ी में, जो बाला जी की मढ़ी के नाम से जानी जाती थी।जहाँ अनेक सन्त स्थूल व सूक्ष्म(समाधि) से रहते थे... हमने सूक्ष्म यात्रा को अपने स्थूल में रहते ही महसूस करना शुरू किया। हम अपने तीन रूप में पूर्णता पाते हैं/स्थूल, सूक्ष्म व कारण। हम सब स्थूल जगत की बनाबटों,पूर्वाग्रहों ,छापों आदि में ही व्यस्त रहते हैं इससे आगे  की जीवन यात्रा के साक्षी नहीं हो पाते। मालिक की हम पर कृपा रही है।



           अनेक बार सुनने को मिला है कि जब इंसान की मृत्यु करीब आयी है तो उसे सूक्ष्म जगत की शक्तियां या लोग दिखाई देने लगे हैं।जिंदा उनके करीबियों को भी मरने वाले के सम्बंध में स्पष्ट अस्पष्ट सूक्ष्म जगत दिखाए देने लगता है। जो व्यक्ति हमें प्रिय नहीं होता या हमारी आदतों में नहीं होता वह भी के साथ हम रहना नहीं चाहते लेकिन धीरे धीरे उसके साथ रहने का वक्त आगे बढ़ता है वह हमारे जीवन का हिस्सा बन जाता है।ऐसे में हमारा वातावरण,व्यवस्था, उसमे रहने का समय,अभ्यास या परिस्थितियों को हमें उसके अति नजदीक ले आती हैं और हमारा सूक्ष्म जगत भी उससे प्रभावित हो जाता है।

   जन्म व मृत्यु के वक्त को मानव जीवन मे काफी महत्व दिया गया है। ये दोनों वक्त हमभी सूक्ष्म जगत से जुड़ने या सूक्ष्म कगत की सहानुभूति पा सकते हैं।सूक्ष्म जगत का स्तर इस वक्त करीब होता है।अतः ऐसा श्मशान व कब्रस्तान में भी देखा गया है। साधारण व्यक्ति भी इन स्थानों पर दार्शनिक व आध्यात्मिक हो जाता है।हम अपनी मृत्यु अर्थात अपने इस शरीर की मृत्यु से पूर्व भी सूक्ष्म जगत में प्रवेश कर सकते है।  इसलिए किसी ने कहा कि किसी व्यक्ति  लिए उसके स्थूल शरीर की मृत्यु के बाद कुछ भी किया तो क्या किया?उसके जिंदा रहते उसके सम्मान ,कल्याण,शांति,सन्तुष्टि के लिए क्या किया?व्यक्ति का सम्मान इसके जिंदा रहते होजाना चाहिए।

  हमारी व्यवस्थाएं, हमारी कृत्रिमताएँ कैसी होनी चाहिए?एक दिन हम हम जलालाबाद रोड पर फिलनगर की ओर से पैदल चले आ रहे थे।हमारे लिए कंकरीटईंट सर बने धर्मस्थल महत्वपूर्ण नहीं हैं।हम वहाँ वहां जाने किस प्रयत्न करते हैं-जहाँ हमें सूक्ष्म स्तर की शक्तियों का अहसास होता है। हां, हम फिलनगर की ओर से आ रहे थे।श्री बलवन्तसिंह  इंटर कालेज के सामने एक मोटरसाइकिल पर एक व्यक्ति अपनी पत्नी व अपने दो साल के बेटा के साथ बैठा था।जब हम आगे निकल गए और उसने हमसे नमस्ते की ।हम आगे निकल आये। कुछ दिनों बाद हमे पता चला कि वे वहां पर क्यों रुके थे?

   "गुरुजी को आगे निकल जाने दो फिर हम चलते हैं।"-इसका मतलब समझते हो।हम जब विद्यार्थी थे,स्कूल आते जाते वक्त व अन्य किसी वक्त हमारे2 कोई टीचर मिल जाते थे।तब हमारा विचार होता था कि इन्हें आगे निकल जाने दो। ये सब क्या है?हमें तय करना होगा, हम कुछ या किसी के पीछे तो चलें या साथ साथ चलें। वह मोटर साइकिल सबार जब भी अकेले मिल जाता तो हमें बैठा कर आगे हमारी मंजिल पर वह पहुंचा देता। जब फैमिली के साथ तो ऐसा। जैसा हमारा स्तर बैसा हमारा सोंच। दुनिया  की नजर में वह मुसलमान है लेकिन भेद क्यों? ये हमारी नाक, हाथपैर, सिर आंख.... इसका मांस न हिन्दू है न मुसलमान, इसकी कोई जाति नहीं कोई मजहब नहीं।हमारे पास दिल है हमारे पास दिमाग है,हमारी भावनाएं है,हमारे विचार हैं-उनकी न जाति न मजहब ।

  आत्मा सनातन है,हमारा धर्म आत्मा ही है।चलो, तुम्हारी बात मान लेते है। तुम भी धर्म,ईश्वर आदि की आड़ में कुछ तो कर रहे हो।लेकिन जो कर रहे हो ,जिस स्तर जिस बिंदु पर कर रहे हो-उससे आगे भी चेतना व अपने अस्तित्व के बिंदु व स्तर हैं।जीवन विकसित नहीं है, विकास शील है।।।निरन्तरता को स्वीकारो।।।अपने से जुडो।अपने को अनुभव करो।आओ, कुछ देर हमारे साथ आंख बंद कर बैठो।।

Saturday 22 February, 2020

सम्मान, स्वास्थ्य, शिक्षा, आध्यत्म, सुरक्षा, जीवन यापन ,भय मुक्त समाज आदि को वरीयता के बिना कोई राष्ट्र सक्षम नहीं!!

 राष्ट्र स्वयं क्या है?
जनता क्या खा रही है?इसपर जब राष्ट्र सजग नहीं?
जब हर कोई का देश में सम्मान नहीं!
जब शिक्षा प्रणाली दोहरी तेहरी, सभी को निशुल्क  बेहतर शिक्षा नहीं।
जब देश में 85 प्रतिशत अपना बेहतर इलाज न करवा सके।
जब भय मुक्त समाज नहीं।
जब जातिवाद मजहब वाद विहीन समाज नहीं।
जब कोई बाला सुरक्षित नहीं।
जब व्यक्ति के स्तर को उच्च करने का वातावरण नहीं।
जब देश की जनता आंतरिक दिव्य चेतना के विस्तार के अवसर के अभाव में!
आदि आदि।
तब 15 प्रतिशत की सत्तादारी, भागीदारी आदि से सिर्फ काम नहीं चलता लोकतंत्र जनतंत्र में!!

Friday 21 February, 2020

सभी समस्याओं की जड़ है - हमारी आस्थाएं व नजरिया!! अपने या आत्मा प्रति बेईमान होना!!

 दुनिया अभी जड़ तक नहीं पहुंच रही है। कानून पर कानून... बड़ा होता संविधान!!सोचो उन देशों की जहां संविधान के नाम पर सिर्फ आदेश हैं या कुछ लिखित पन्ने।किसी किसी देश में बहुत ही छोटा संविधान है। यदि हम ईमानदार हों व कानूनी व्यवस्था चाहते हों तो संविधान के रूप में दो चार पंक्तिया ही काफी हैं,जैसे-घर व समाज में शांति व्यवस्था बनी रहनी चाहिए, कोई किसी को कष्ट न दे।सत्य व न्याय स्वीकार हो।सब अपनी आवश्यकताओं के लिए किसी को व प्रकृति को कष्ट न दिए विकास कार्य कर सकते हैं....आदि आदि।
       हम कहते रहे हैं-सभी समस्याओं की जड़ है हमारा नजरिया व आस्था व उस पर ही टिक जाना।ये सोच व विकास शीलता ,परिवर्तन का स्वीकार आदि का अभाव।आगे के बिंदुओं, स्तरों पर नजर का अभाव।अपने मन, समझ, चेतना को अग्रिम बिंदुओं की ओर यात्रा का विराम!!!!!



 हम वास्तव में अपनी निजता, आत्मा, अपने अंदर की दिव्यता के प्रति ईमानदार नहीं रह गए हैं। लोग80-90 साल के है जाते हैं, पूजा पाठ, मन्त्र उच्चारण आदि के लिए भी इंद्रिया कार्य नहीं करती लेकिन किशोर अवस्था की सोंच, स्वप्न्न, इच्छाएं मन को डिस्टर्व करती रहती हैं।इसका कारण है,हमने सनातन विद्वानों की इस धारणा को तोड़ दिया 25 साल तक का जीवन ब्रह्मचर्य होता है।कोई मन्त्र बार बार जपते रहने से जरूरी नहीं कल्याण हो।।।
गौतम बुद्ध ने कहा है दुख का कारण इच्छाएं है। हम अपनी इच्छाओं के गुलाम हैं,जो हमारी उन्नति में बाधक है..... !!!
रैदास जी ने कहा है-मन चंगा तो कठौती में गंगा...!!!मन चंगा कब होए???राम राम जपते रहो.... नजरिया ,विचार व आस्था आदि निम्न स्तर की बनाए रखो... हो गया काम??? न बाबा!!!

Saturday 15 February, 2020

चलो ठीक है इस बहाने कुछ तो अहसास है-शांति व मौन के सम्मान का!!अशोक कुमार वर्मा'बिंदु'

चलो ठीक है किसी बहाने शांति व मौन की ओर तो बढ़ रहे हो!!
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इसका मतलब है आप जानते हो,कुछ तो है जिसके लिए शांति व मौन भी चाहिए। वैसे आप भूलते ही जा रहे हो कि जीवन।में शांति व मौन भी चाहिए। आप भूल गए वह परम्परा, जब लोग मौन व्रत रहा करते थे। ये शन्ति व मौन ही हमें अपनी दिव्यता अपने ब्रह्म तत्व से जोड़ता है,इस लिए विद्यार्थी जीवन को ,25-28 वर्ष तक के जीवन को ब्रह्मचर्य जीवन कहा गया था। जो तैयारी था हमारे गृहस्थ जीवन का। 25-28 वर्ष तक या जीवन का शुरुआती चौथयाई भाग वह भाग है,जिसमें हम अपनी ऊर्जा या चेतना के उत्साहित, उमंगित, अन्नतित ऊर्जा,विकासशील  स्तर पर होते हैं।जिसको हम ब्रह्मचर्य या आचार्य होने के साथ ही जी सकते हैं।जिसके लिए एक प्रकार का गुरुत्वीय वातावरण चाहिए होता है।जिसके लिए हमारे आश्रम व गुरुद्वारा हुआ करते थे।इस लिए हम धर्म स्थल सिर्फ आश्रम व गुरुद्वारा को ही माना करते थे।जहां हम उस समूह में रहने, समूह व्यवस्था, तंत्रात्मक व्यवस्था का अनुशासन सीखते थे, नियमितता सीखते थे ,दिनचर्या सीखते थे जो प्रकृति, अपने हाड़ मास शरीर, अन्य हाड़ मास शरीरों, जीव जंतुओं, वनस्पतियों आदि के संग बिताते हैं। तब हम सीखते थे हम कैसे आगामी जीवन के पड़ाव ग्रहस्थजीवन या वानप्रस्थ जीवन को उस अहसास के साथ जिएं जो हमारा निजत्व है,आत्मा है,स्व है,सर्व व्याप्त चेतना व  सम्वेदना है।जैसे लहर व सागर का सम्बंध, किरण व सूरज का सम्बंध..... वैसे ही हमारा व आत्मा का,आत्मा व परम् आत्मा का सम्वन्ध...... अनन्त यात्रा का पथिक.... सनातन यात्रा का पथिक.....!!
आज हमें उस बेहतरी से गिरावट के कारण कैमरों की नजर में रह कर अनुशासन रहने की व्यबस्था को सीखना पड़ रहा है।हम भूल गए कि हर वक्त एक दृष्टि हम पर व जगत पर होती है। हम भूल गए अपना चरित्र उस दृष्टि में गढ़ना।।

Wednesday 12 February, 2020

मीरानपुर कटरा में निशांत दास पार्थ से मेरा भारत महान व विश्व सरकार तक!!

मीरानपुर कटरा में निशांत दास पार्थ के प्रयत्न सराहनीय हैं। कींचड़ में ही कमल खिलता है।हम अपने आस पास व क्षेत्र में देखते है कि हर कोई जातिवाद, मजहबवाद,लोभ लालच आदि में फंस कर नई पीढ़ी के लिए प्रेरणादायक वातावरण नहीं सौंप पा रहे हैं। जुंआ, माफिया गिरी, दारू, थाना राजनीति आदि के ही बीच मासूमियत पल्लवित विकसित हो रही है। क्षेत्र के दबंग, माफिया, जातिबल, धनबल आदि सब किसी न किसी नेता के घर से होकर गुजरते हैं। ऐसे हालत पूरे देश के अंदर स्थानीय स्तर पर है।कोई भी नेता ईमानदार नौकरशाही, अफसर शाही ,पत्रकारिता आदि के समर्थन में खड़ा नहीं देखा जाता। न ही आम आदमी समस्याओं से जूझना चाहता है।


   एक ओर पूरा विश्व भारत की ओर देख रहा है।आखिर भारत में ऐसा क्या है,जिस कारण से भारत विश्व की निगाह में है।दलाई लामा भी कहते है,दुनिया के मुसलमानों को भारत को अपना गुरु बनाना चाहिए।आखिर ऐसा क्या है,भारत में जो अनुकरणीय है? भारत मे कुछ तो ऐसा है जो विश्व को अनुकरणीय है। वही हमारी अर्थात भारतीयों की महानता है। उसी महानता को हमें पकड़ने की जरूरत है।


  निशांत दास पार्थ ठीक कहते हैं, हमें महानताओं को हर वक्त पकड़ कर रखना है।यदि हम ऐसा कर लें तो हम 02 प्रतिशत से होकर ज्यादा हो जाएंगे। फिर पांडव पांच ही होते हैं, महाभारत से पूर्व बनबास हो सकता है लेकिन महाभारत वक्त श्रीकृष्ण रूपी आत्मा.. परम् आत्मा हर वक्त हमारे साथ रहे, यही हमारी महानता है। दुर्योधन कभी भी श्रीकृष्ण को नहीं चाह सकता।,वह तो संसाधन ही चाहेगा।हमारी महानता हमारी आत्मा, आत्मा की शक्ति है,हमारे सन्त, सन्तों की वाणियां हैं। पाकिस्तान में दो प्रतिशत हिन्दू बचे हैं। उनसे पूछो महानता क्या होती है?सद्भावना क्या होती है। कल ही हमने उनमे से एक युवा भाई से बात की, उससे पूछो मानवता, सद्भावना व चीत्कार करती मानवता का दर्द।



    महानता को प्रदर्शित क्या करता है?हमारी अमीरी, हमारा शिक्षित होना, हमारा स्वस्थ होना, हमारा ईश्वर को मानना न मानना आदि आदि?नहीं, हमने इसको भी देख लिया।ये सब ढोंग पाखण्ड बन सिर्फ।।हमारी महानता को प्रकट करता है-हमारा नजरिया, मन प्रबन्धन व आचरण प्रबन्धन।गीता से भी यही स्पष्ट होता है,कुर आन से भी। कुर आन की शुरुआती आयतें भी कहती हैं- धरती पर प्रशंसा योग्य कुछ भी नहीं सिर्फ खुदा के सिवा। इसके लिए रास्ता  आत्मा से जाता है, मन प्रबन्धन व आचरण प्रबन्धन से जाता है।
परम्+आत्मा=परमात्मा; हमारे द्वारा परम् आत्मा ही महानता घटित करवा सकती है।इसको हमारी शिक्षा, योग पूर्ण शिक्षा व आचरण ही हमारी महानता स्थापित करती है।अनेक ग्रन्थों से यही स्पष्ट होता है। अट्ठानवे प्रतिशत उस महानता को देख ही नहीं पा रहे हैं।उनका उस पर आचरण, प्रयत्न, प्रयोग तो बड़ा मुश्किल।इस लिए योग जरूरी है।मन चंगा तो कठौती में गंगा, कुम्भ में सागरसागर में कुम्भ.,वसुधैब कुटुम्बकम,सर्वेभवन्तु सुखिनः..... आदि की स्थिति योग से ही सम्भव है। जो अपने भौतिक विकास के लिए,अपनी जाति अपने मजहब के लिए, लोभ लालच के लिए दूसरे को कष्ट देने को भी नहीं चूकते तो इसका मतलब है उनका नजरिया ही गलत है।वह योग शिक्षा से ही सम्भव है। यूनेस्को, संयुक्त राष्ट्र संघ भी2002ई0 को मूल्य आधारित शिक्षा की वकालत कर चुका है।


      विद्यालय व शिक्षक, विद्यालय व शिक्षकों प्रति संस्थाओं व सरकारों का रवैया, प्रशासन व पुलिस ने की मदद, नौकरशाही व नेताशाही पर नियंत्रण व प्रशिक्षण आदि से ही ये सम्भव है। इस हेतु पुलिस, शिक्षक व संविधान रक्षक संस्थाओं की मिलीभगत की सक्रियता को क्रांतिकारी कानून की आवश्यकता है।जिसे कि ज्ञान व संविधान आधारित वातावरण बन सके व वैचारिक क्रांति, मानसिक क्रांति हो सके।इसमें योग ही सहायक है।


   योग ही हमें सन्तुलन करना सिखाता है। वह हमें बताता है-हमारे अंदर ईश्वर है।दूसरों के अंदर ईश्वर है। हमारे अंदर जो दिव्य है वह कैसे विस्तार पा सकता है?हम व जगत के तीन रूप हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण।हमें पहले अपने को पहचानना जरूरी है।हम कौन हैं?हमारे हाड़ मास शरीर को एक दिन मर ही जाना है। जीवन पथ पर रोज हजारों आते हैं और जाते है। हमें महानताएं महान बनाती है।महान हमारा हाड़ मास शरीर नहीं आत्मा है।उसे परम् हो जाने का अबसर योग ही है।हमारे नजदीक हमारी विश्व सरकार है -हमारी आत्मा।जो किरण है, लहर है।जो सूरज स्वयं सूरज है,जो स्वयं सागर है। यही से विश्व बंधुत्व, विश्व सरकार, अखण्ड भारत/दक्षेस सरकार का स्वप्न उजागर होता है।


कटरा विधान सभा क्षेत्र से एक अलख जग सकती है,जो संयुक्त राष्ट्र संघ व अमेरिका आदि तक भी जा सकती है। पांच पांडव ही काफी हैं, पंच प्यारे ही काफी हैं......
#अशोकबिन्दु
#nishantdas
parth

Tuesday 11 February, 2020

भेद से ऊपर उठकर दुनिया मुट्ठी में!!!

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1252440551810649&id=100011341492358


जड़ तक कोई जाना नहीं चाहता!!आरोप प्रत्यारोप से कोई शान्ति व विकास नहीं ला सकता!!सबकी भागीदारी भी जरूरी!!!
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85 प्रतिशत+अल्पसंख्यक=राजनैतिक दशा???किस ओर संकेत दे सकती है???देश का मतलब क्या है?उस देश के रहने वाले लोग, जीवजन्तु, वनस्पति, प्रतीक चिह्न, धरोहरों का सम्मान!!!विकास!!!संरक्षण!!सबकी भागीदारी!!!आचार्य चतुर सेन/वयम रक्षाम: की माने तो आदि काल से ही संघर्ष सत्ता भागीदारी, संसाधन वितरण, सबका सम्मान आदि को लेकर था।कार्ल मार्क्स की माने तो, दुनिया को बर्बाद करने वाला सत्तावाद, पूंजीवाद, पुरोहितवाद, जातिवाद/कुल वाद/जन वाद था।इतिहास उठा कर देखें ,जन का अर्थ क्या था?जनपद का मतलब क्या था??किसी क्षेत्र का अध्ययन करें!जातिवाद,सामन्तवाद,माफियागिरी ही हावी है।क्षेत्र में कुछ परिवार हाबी रहते हैं,फिर उनके रिश्तेदार, सम्पर्की, जाति के लोग।कुछ लोग कहते है,अब कहाँ है सामन्त बाद?हम कहते रहे हैं-अभी तो भरपूर मात्रा में है सामन्तवाद।चाणक्य ने कहा है-सामन्त का अर्थ है-पड़ोसी।वार्ड/गांव/शहर के दबंग, माफिया, जातिबल आदि किसी न किसी नेता के साथ खड़े होते है,क्षेत्र में कुछ परिवारों के चारो ओर राजनीति मंडराती है। व्यवस्था परिवर्तन/जाति व्यवस्था समाप्ति पर कौन बल देता है?सन2011से2025 तक का समय देश व दुनिया के लिए महत्वपूर्ण है।भविष्य उसके साथ खड़ा होगा, जो सबके साथ खड़ा होगा।ऐसे में आध्यत्मिक व मानवता ही सभी समस्याओं का हल कर सकती है।ये भी विचारणीय विषय है-किस राजनैतिक दल में नए प्रत्याशी स्थान पा रहे हैं और किस में पुराने ही ?कैसा व्यवस्था परिवर्तन??क्षेत्र में कुछ परिवारों तक राजनीति केंद्रित क्यों??


https://www.facebook.com/groups/1025404947641650/permalink/1400003973515077/


सबका साथ सबका विकास सबकी भागीदारी!!
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 मानव समाज, सत्ता व तन्त्र गड़बड़झाला हो गया है,अराजक होगया है।शायद ऐसा वैदिक काल से ही था, इसलिए वेदों को कहना पड़ा-मनुष्य बनो फिर आर्य/देव मानव बनो।हमें तो ये लगता है-अभी मनुष्य पशु मानव ही है।सुबह से शाम तक, शाम से सुबह तक हम आप सब वह करते आते हैं जो वास्तव में नहीं करना चाहिए। हर स्तर पर हमें इससे मतलब नहीं है कि क्या होना चाहिए, होने से मतलब नहीं है।हम जी कर रहे हैं-ठीक है।हम अपनी व जगत की पूर्णता (योग/आल/अल/all/आदि) के आधार पर कुछ बहु नहीं देखते।इसलिए आदिकाल से ही दुनिया आतंकवाद, असुरत्व,मनमानी, चापलूसी, लोभ लालच आदि व इसके लिए जाति, मजहब,अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, देशी विदेशी आदि के नाम पर विश्व व समाज को अशान्ति, अविश्वास ,हिंसा आदि में धकेलते रहते हैं।
हम प्रकृति अंश ब्रह्म अंश, प्रकृति अभियान/नियम /सुप्रबन्धन के आधार पर नहीं करते। ब्राह्मंड व जगत में सब कुछ नियम से है,चन्द तारे, जन्तु वनस्पति आदि सब नियम से हैं,सिर्फ मनुष्य की छोड़ कर।

  हमारा पूरा जीवन शिक्षा जगत में हो गया।जिनमे से 25 से वर्ष शिक्षण कार्य करते हो गए। हमने देखा है- अध्यापक, विद्यार्थी, अभिवावक, शिक्षा कमेटियों आदि के माध्यम से शिक्षा जगत, विद्यालय के तो सम्पर्क में है लेकिन मतलब अपनी सोंच से ही है।शैक्षिक मूल्यों से नहीं।उन्हें इससे मतलब नहीं क्या होना है?बस, जो हम चाहते हैं वह ठीक है।। कुर वाणी है-त्याग, नजरअंदाज करना वह जो हमेंव जगत को भविष्य में अराजक बनाने वाला है,दूसरे को कष्ट देने वाला है।

समाज, देश व विश्व में अनेक ऐसे हैं उन्हें सारी मनुष्यता, सारे विश्व से मतलब नहीं।सुर से सुरत्व से मतलब नहीं।वास्तव में धर्म व अध्यात्म से मतलब नहीं।ईश्वर से मतलब नहीं।सब,ढोंग!!!!जव सारी दुनिया सारे मनुष्य ईश्वर की देन है,तो भेद क्यों??सभी के अंदर ईश्वर की रोशनी मान कर सबका मन ही मन सम्मान नहीं। अहिंसा क्या है?यही अहिंसा है,मन मे किसी से भेद, द्वेष न रखना। हम जब तक इस दशा को प्राप्त नहीं हो जाते कि सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर तो ईश्वर के प्रेमी कैसे??

https://www.facebook.com/groups/1025404947641650/permalink/1396428563872618/

अशोक कुमार वर्मा' 'बिंदु'
www.ashokbindu.blogspot.com

Friday 7 February, 2020

जीवन में जाति, मजहब, धर्म स्थलों आदि की नहीं रोटी कपड़ा, मकान, शिक्षा, शांति, सम्मान, सत्ता में सहभागिता आदि की जरूरत!!!

हमें कोई साधना / उपासना आदि करना है तो उसके लिए धर्मस्थल जरूरी नही है। समाज हमें किस जाति/मजहब का मानता है ये महत्वपूर्ण नहीं है।शांति, धैर्य,त्याग, समर्पण, शरणागति,सेवा आदि महत्वपूर्ण है।गुरु,आत्मा, मार्गदर्शक आदि महत्वपूर्ण है।हमें अनेक स्थानों पर गुरुद्वारों पर नाज है।जब हम समाज से त्याज्य एक मुस्लिम गर्भवती महिला को एक गुरुद्वारा में रहते हुए, जीवन यापन करते हुए व नमाज अदा करते हुए देखते हैं। जब हम दिल्ली के एक अस्पताल में भर्ती अपने बीमार  परिजन के साथ उपस्थित मुस्लिम परिवार को नजदीक के एक गुरुद्वार में नमाज,भोजन आवास की व्यवस्था प्राप्त करते देखते हैं।
जरूरी नहीं की  अपने देवी देवताओं की उपासना हेतु लाखों रुपए व्यय किए जाएं।महत्वपूर्ण है जिन प्राणियों में आत्मा का निवास है ,उसके लिए सुप्रबन्धन खड़ा करना,उनको सेवा देना है ।

Thursday 23 January, 2020

सुभाष की मृत्यु पर खामोश भारत की देश भक्ति!!




कोई माई का लाल देश भक्त सरकार भारत में है जो सुभाष बाबू की मृत्यु को उजागर कर दे!!

https://m.facebook.com/groups/126555337741836/wp/2484696845137756/?ext=1580049673&hash=AeSDT-l8shXsbcs0

 धन्य देश के जनता की देश भक्ति??तथाकथित देश भक्तों की देशभक्ति!!! जो नहीं जानना चाहती कि हमारे प्रिय नेता एक मात्र हमारे प्रिय नेता सुभाष बाबू के मृत्यु पर से पर्दा कोई नहीं उठ वाना चाहता!!
जिस दिन मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बने थे, उस दिन हमने पोस्ट किया था::मोदी जी को अब पता चलेगा कि देश में वास्तव में अब भी किसका शासन है?मोदी जी ने भी गोपनीयता की शपथ ले ली है,वे अब सुभाष व शास्त्री मृत्यु पर कोई एक्शन नहीं ले सकते।ये भी नहीं बता सकते कि भारत राष्ट्र मण्डल का सदस्य क्यों है?देश की  तथाकथित आजादी व विभाजन के कागज कहाँ हैं?


  हम सन1986ई से जो कहते आये उस पर लोगों ने मजाक ही उड़ाया। जनता दल सरकार के बाद सब सामने आना शुरू हुआ।। भारत की राजनीति आदि काल से ही गन्दी रही है। देश को आगे काफी कुछ झेलना होगा।।यदि नेता या जनता न नहीं जागे।