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Tuesday 25 February, 2020

भूत से वर्तमान की ओर!!स्थूल से सूक्ष्म की ओर.......

  हम यदि आंख बंद कर बैठे हैं,और आप चुपके से आकर हमारे पास बैठ जाएं और हमें अहसास न हो तो आप  हम ईश्वर को महसूस करने की ओर कैसे बढ़ेंगे? हम आप तो अभी अपने को ही महसूस नहीं करते हैं। हमने कहीं पर पढ़ा था कि 80 प्रतिशत से ऊपर व्यक्ति भूत योनि/नरक योनि की संभावनाओं में जीता है। हम आपके घर पर आते है, आप हमें आदर से बैठालते है,नाश्ता कराते है, सम्मान से बात करते हैं....आदि आदि। वहीं जब हम ये शरीर त्यागने के बाद  आप के पास आते हैं तो आप डरते है..... ये बात हमें समझ में न आती है। देखा गया है जब कोई मुर्दा में वापस जान आ जाती है तो कुछ लोग डर कर भागते हैं। ये सब क्या है??आप हम अभी जीवन की सम्पूर्णता(आल/अल/all/योग))/आदि) से जुड़े नहीं है।आप चाहें कितने भी अपनी जाति/मजहब पर गर्व करें?अभी आप धर्म/अध्यात्म/वर्तमान/जीवन/आदि में नहीं हैं।आप ईश्वर को महसूस करने की ओर नहीं हैं। हम मालिक के कृपा पात्र हैं,हमें किशोरावस्था से ही इसका अहसास होने लगा।शिक्षा की शरुआत सन्तों के बीच से शुरू हुई, मंदिरों में जाना शुरू किया तो शिक्षा के लिए न कि परम्पराओं को ढोने के लिए।ब्रह्मनाद ने हमें आंख बंद कर बैठने की परंपरा से सिर्फ जोड़ा न कि जातीय/मजहबी रीति रिवाजों, कांडों में। आंख बंद कर हमने कुछ महसूस करना शुरू किया जो हमारे शरीर व मन को आराम देता रहा।,अपने करीब किसी का होने का अहसास करता रहा।यहीं से हम बसुधैव कुटुम्बकम, विश्व बंधुत्व, सागर में कुंभ कुंभ में सागर, अनेकता में एकता...... आदि को महसूस करना शुरू किया।और स्वत:वेदांग के आखिरी अंग ज्योतिष को भी महसूस करना शुरू किया।



          हम सब अभी अपनी निजता/आत्मियता/आत्मा की यात्रा ही शुरू नहीं कर पा रहे हैं। हम अभी अपने अहसास से ही काफी दूर हैं।इससे आगे के पायदान पर कैसे पहुंचेगे? हम लगभग नौ बजे जो साधना करते हैं, वह हमें भेद से अभेद की ओर ले जाती है। हम ने शिक्षा की शुरुआत मन्दिर से की,कुछ वर्षों बाद एक मढ़ी में, जो बाला जी की मढ़ी के नाम से जानी जाती थी।जहाँ अनेक सन्त स्थूल व सूक्ष्म(समाधि) से रहते थे... हमने सूक्ष्म यात्रा को अपने स्थूल में रहते ही महसूस करना शुरू किया। हम अपने तीन रूप में पूर्णता पाते हैं/स्थूल, सूक्ष्म व कारण। हम सब स्थूल जगत की बनाबटों,पूर्वाग्रहों ,छापों आदि में ही व्यस्त रहते हैं इससे आगे  की जीवन यात्रा के साक्षी नहीं हो पाते। मालिक की हम पर कृपा रही है।



           अनेक बार सुनने को मिला है कि जब इंसान की मृत्यु करीब आयी है तो उसे सूक्ष्म जगत की शक्तियां या लोग दिखाई देने लगे हैं।जिंदा उनके करीबियों को भी मरने वाले के सम्बंध में स्पष्ट अस्पष्ट सूक्ष्म जगत दिखाए देने लगता है। जो व्यक्ति हमें प्रिय नहीं होता या हमारी आदतों में नहीं होता वह भी के साथ हम रहना नहीं चाहते लेकिन धीरे धीरे उसके साथ रहने का वक्त आगे बढ़ता है वह हमारे जीवन का हिस्सा बन जाता है।ऐसे में हमारा वातावरण,व्यवस्था, उसमे रहने का समय,अभ्यास या परिस्थितियों को हमें उसके अति नजदीक ले आती हैं और हमारा सूक्ष्म जगत भी उससे प्रभावित हो जाता है।

   जन्म व मृत्यु के वक्त को मानव जीवन मे काफी महत्व दिया गया है। ये दोनों वक्त हमभी सूक्ष्म जगत से जुड़ने या सूक्ष्म कगत की सहानुभूति पा सकते हैं।सूक्ष्म जगत का स्तर इस वक्त करीब होता है।अतः ऐसा श्मशान व कब्रस्तान में भी देखा गया है। साधारण व्यक्ति भी इन स्थानों पर दार्शनिक व आध्यात्मिक हो जाता है।हम अपनी मृत्यु अर्थात अपने इस शरीर की मृत्यु से पूर्व भी सूक्ष्म जगत में प्रवेश कर सकते है।  इसलिए किसी ने कहा कि किसी व्यक्ति  लिए उसके स्थूल शरीर की मृत्यु के बाद कुछ भी किया तो क्या किया?उसके जिंदा रहते उसके सम्मान ,कल्याण,शांति,सन्तुष्टि के लिए क्या किया?व्यक्ति का सम्मान इसके जिंदा रहते होजाना चाहिए।

  हमारी व्यवस्थाएं, हमारी कृत्रिमताएँ कैसी होनी चाहिए?एक दिन हम हम जलालाबाद रोड पर फिलनगर की ओर से पैदल चले आ रहे थे।हमारे लिए कंकरीटईंट सर बने धर्मस्थल महत्वपूर्ण नहीं हैं।हम वहाँ वहां जाने किस प्रयत्न करते हैं-जहाँ हमें सूक्ष्म स्तर की शक्तियों का अहसास होता है। हां, हम फिलनगर की ओर से आ रहे थे।श्री बलवन्तसिंह  इंटर कालेज के सामने एक मोटरसाइकिल पर एक व्यक्ति अपनी पत्नी व अपने दो साल के बेटा के साथ बैठा था।जब हम आगे निकल गए और उसने हमसे नमस्ते की ।हम आगे निकल आये। कुछ दिनों बाद हमे पता चला कि वे वहां पर क्यों रुके थे?

   "गुरुजी को आगे निकल जाने दो फिर हम चलते हैं।"-इसका मतलब समझते हो।हम जब विद्यार्थी थे,स्कूल आते जाते वक्त व अन्य किसी वक्त हमारे2 कोई टीचर मिल जाते थे।तब हमारा विचार होता था कि इन्हें आगे निकल जाने दो। ये सब क्या है?हमें तय करना होगा, हम कुछ या किसी के पीछे तो चलें या साथ साथ चलें। वह मोटर साइकिल सबार जब भी अकेले मिल जाता तो हमें बैठा कर आगे हमारी मंजिल पर वह पहुंचा देता। जब फैमिली के साथ तो ऐसा। जैसा हमारा स्तर बैसा हमारा सोंच। दुनिया  की नजर में वह मुसलमान है लेकिन भेद क्यों? ये हमारी नाक, हाथपैर, सिर आंख.... इसका मांस न हिन्दू है न मुसलमान, इसकी कोई जाति नहीं कोई मजहब नहीं।हमारे पास दिल है हमारे पास दिमाग है,हमारी भावनाएं है,हमारे विचार हैं-उनकी न जाति न मजहब ।

  आत्मा सनातन है,हमारा धर्म आत्मा ही है।चलो, तुम्हारी बात मान लेते है। तुम भी धर्म,ईश्वर आदि की आड़ में कुछ तो कर रहे हो।लेकिन जो कर रहे हो ,जिस स्तर जिस बिंदु पर कर रहे हो-उससे आगे भी चेतना व अपने अस्तित्व के बिंदु व स्तर हैं।जीवन विकसित नहीं है, विकास शील है।।।निरन्तरता को स्वीकारो।।।अपने से जुडो।अपने को अनुभव करो।आओ, कुछ देर हमारे साथ आंख बंद कर बैठो।।

Saturday 22 February, 2020

सम्मान, स्वास्थ्य, शिक्षा, आध्यत्म, सुरक्षा, जीवन यापन ,भय मुक्त समाज आदि को वरीयता के बिना कोई राष्ट्र सक्षम नहीं!!

 राष्ट्र स्वयं क्या है?
जनता क्या खा रही है?इसपर जब राष्ट्र सजग नहीं?
जब हर कोई का देश में सम्मान नहीं!
जब शिक्षा प्रणाली दोहरी तेहरी, सभी को निशुल्क  बेहतर शिक्षा नहीं।
जब देश में 85 प्रतिशत अपना बेहतर इलाज न करवा सके।
जब भय मुक्त समाज नहीं।
जब जातिवाद मजहब वाद विहीन समाज नहीं।
जब कोई बाला सुरक्षित नहीं।
जब व्यक्ति के स्तर को उच्च करने का वातावरण नहीं।
जब देश की जनता आंतरिक दिव्य चेतना के विस्तार के अवसर के अभाव में!
आदि आदि।
तब 15 प्रतिशत की सत्तादारी, भागीदारी आदि से सिर्फ काम नहीं चलता लोकतंत्र जनतंत्र में!!

Friday 21 February, 2020

सभी समस्याओं की जड़ है - हमारी आस्थाएं व नजरिया!! अपने या आत्मा प्रति बेईमान होना!!

 दुनिया अभी जड़ तक नहीं पहुंच रही है। कानून पर कानून... बड़ा होता संविधान!!सोचो उन देशों की जहां संविधान के नाम पर सिर्फ आदेश हैं या कुछ लिखित पन्ने।किसी किसी देश में बहुत ही छोटा संविधान है। यदि हम ईमानदार हों व कानूनी व्यवस्था चाहते हों तो संविधान के रूप में दो चार पंक्तिया ही काफी हैं,जैसे-घर व समाज में शांति व्यवस्था बनी रहनी चाहिए, कोई किसी को कष्ट न दे।सत्य व न्याय स्वीकार हो।सब अपनी आवश्यकताओं के लिए किसी को व प्रकृति को कष्ट न दिए विकास कार्य कर सकते हैं....आदि आदि।
       हम कहते रहे हैं-सभी समस्याओं की जड़ है हमारा नजरिया व आस्था व उस पर ही टिक जाना।ये सोच व विकास शीलता ,परिवर्तन का स्वीकार आदि का अभाव।आगे के बिंदुओं, स्तरों पर नजर का अभाव।अपने मन, समझ, चेतना को अग्रिम बिंदुओं की ओर यात्रा का विराम!!!!!



 हम वास्तव में अपनी निजता, आत्मा, अपने अंदर की दिव्यता के प्रति ईमानदार नहीं रह गए हैं। लोग80-90 साल के है जाते हैं, पूजा पाठ, मन्त्र उच्चारण आदि के लिए भी इंद्रिया कार्य नहीं करती लेकिन किशोर अवस्था की सोंच, स्वप्न्न, इच्छाएं मन को डिस्टर्व करती रहती हैं।इसका कारण है,हमने सनातन विद्वानों की इस धारणा को तोड़ दिया 25 साल तक का जीवन ब्रह्मचर्य होता है।कोई मन्त्र बार बार जपते रहने से जरूरी नहीं कल्याण हो।।।
गौतम बुद्ध ने कहा है दुख का कारण इच्छाएं है। हम अपनी इच्छाओं के गुलाम हैं,जो हमारी उन्नति में बाधक है..... !!!
रैदास जी ने कहा है-मन चंगा तो कठौती में गंगा...!!!मन चंगा कब होए???राम राम जपते रहो.... नजरिया ,विचार व आस्था आदि निम्न स्तर की बनाए रखो... हो गया काम??? न बाबा!!!

Saturday 15 February, 2020

चलो ठीक है इस बहाने कुछ तो अहसास है-शांति व मौन के सम्मान का!!अशोक कुमार वर्मा'बिंदु'

चलो ठीक है किसी बहाने शांति व मौन की ओर तो बढ़ रहे हो!!
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इसका मतलब है आप जानते हो,कुछ तो है जिसके लिए शांति व मौन भी चाहिए। वैसे आप भूलते ही जा रहे हो कि जीवन।में शांति व मौन भी चाहिए। आप भूल गए वह परम्परा, जब लोग मौन व्रत रहा करते थे। ये शन्ति व मौन ही हमें अपनी दिव्यता अपने ब्रह्म तत्व से जोड़ता है,इस लिए विद्यार्थी जीवन को ,25-28 वर्ष तक के जीवन को ब्रह्मचर्य जीवन कहा गया था। जो तैयारी था हमारे गृहस्थ जीवन का। 25-28 वर्ष तक या जीवन का शुरुआती चौथयाई भाग वह भाग है,जिसमें हम अपनी ऊर्जा या चेतना के उत्साहित, उमंगित, अन्नतित ऊर्जा,विकासशील  स्तर पर होते हैं।जिसको हम ब्रह्मचर्य या आचार्य होने के साथ ही जी सकते हैं।जिसके लिए एक प्रकार का गुरुत्वीय वातावरण चाहिए होता है।जिसके लिए हमारे आश्रम व गुरुद्वारा हुआ करते थे।इस लिए हम धर्म स्थल सिर्फ आश्रम व गुरुद्वारा को ही माना करते थे।जहां हम उस समूह में रहने, समूह व्यवस्था, तंत्रात्मक व्यवस्था का अनुशासन सीखते थे, नियमितता सीखते थे ,दिनचर्या सीखते थे जो प्रकृति, अपने हाड़ मास शरीर, अन्य हाड़ मास शरीरों, जीव जंतुओं, वनस्पतियों आदि के संग बिताते हैं। तब हम सीखते थे हम कैसे आगामी जीवन के पड़ाव ग्रहस्थजीवन या वानप्रस्थ जीवन को उस अहसास के साथ जिएं जो हमारा निजत्व है,आत्मा है,स्व है,सर्व व्याप्त चेतना व  सम्वेदना है।जैसे लहर व सागर का सम्बंध, किरण व सूरज का सम्बंध..... वैसे ही हमारा व आत्मा का,आत्मा व परम् आत्मा का सम्वन्ध...... अनन्त यात्रा का पथिक.... सनातन यात्रा का पथिक.....!!
आज हमें उस बेहतरी से गिरावट के कारण कैमरों की नजर में रह कर अनुशासन रहने की व्यबस्था को सीखना पड़ रहा है।हम भूल गए कि हर वक्त एक दृष्टि हम पर व जगत पर होती है। हम भूल गए अपना चरित्र उस दृष्टि में गढ़ना।।

Wednesday 12 February, 2020

मीरानपुर कटरा में निशांत दास पार्थ से मेरा भारत महान व विश्व सरकार तक!!

मीरानपुर कटरा में निशांत दास पार्थ के प्रयत्न सराहनीय हैं। कींचड़ में ही कमल खिलता है।हम अपने आस पास व क्षेत्र में देखते है कि हर कोई जातिवाद, मजहबवाद,लोभ लालच आदि में फंस कर नई पीढ़ी के लिए प्रेरणादायक वातावरण नहीं सौंप पा रहे हैं। जुंआ, माफिया गिरी, दारू, थाना राजनीति आदि के ही बीच मासूमियत पल्लवित विकसित हो रही है। क्षेत्र के दबंग, माफिया, जातिबल, धनबल आदि सब किसी न किसी नेता के घर से होकर गुजरते हैं। ऐसे हालत पूरे देश के अंदर स्थानीय स्तर पर है।कोई भी नेता ईमानदार नौकरशाही, अफसर शाही ,पत्रकारिता आदि के समर्थन में खड़ा नहीं देखा जाता। न ही आम आदमी समस्याओं से जूझना चाहता है।


   एक ओर पूरा विश्व भारत की ओर देख रहा है।आखिर भारत में ऐसा क्या है,जिस कारण से भारत विश्व की निगाह में है।दलाई लामा भी कहते है,दुनिया के मुसलमानों को भारत को अपना गुरु बनाना चाहिए।आखिर ऐसा क्या है,भारत में जो अनुकरणीय है? भारत मे कुछ तो ऐसा है जो विश्व को अनुकरणीय है। वही हमारी अर्थात भारतीयों की महानता है। उसी महानता को हमें पकड़ने की जरूरत है।


  निशांत दास पार्थ ठीक कहते हैं, हमें महानताओं को हर वक्त पकड़ कर रखना है।यदि हम ऐसा कर लें तो हम 02 प्रतिशत से होकर ज्यादा हो जाएंगे। फिर पांडव पांच ही होते हैं, महाभारत से पूर्व बनबास हो सकता है लेकिन महाभारत वक्त श्रीकृष्ण रूपी आत्मा.. परम् आत्मा हर वक्त हमारे साथ रहे, यही हमारी महानता है। दुर्योधन कभी भी श्रीकृष्ण को नहीं चाह सकता।,वह तो संसाधन ही चाहेगा।हमारी महानता हमारी आत्मा, आत्मा की शक्ति है,हमारे सन्त, सन्तों की वाणियां हैं। पाकिस्तान में दो प्रतिशत हिन्दू बचे हैं। उनसे पूछो महानता क्या होती है?सद्भावना क्या होती है। कल ही हमने उनमे से एक युवा भाई से बात की, उससे पूछो मानवता, सद्भावना व चीत्कार करती मानवता का दर्द।



    महानता को प्रदर्शित क्या करता है?हमारी अमीरी, हमारा शिक्षित होना, हमारा स्वस्थ होना, हमारा ईश्वर को मानना न मानना आदि आदि?नहीं, हमने इसको भी देख लिया।ये सब ढोंग पाखण्ड बन सिर्फ।।हमारी महानता को प्रकट करता है-हमारा नजरिया, मन प्रबन्धन व आचरण प्रबन्धन।गीता से भी यही स्पष्ट होता है,कुर आन से भी। कुर आन की शुरुआती आयतें भी कहती हैं- धरती पर प्रशंसा योग्य कुछ भी नहीं सिर्फ खुदा के सिवा। इसके लिए रास्ता  आत्मा से जाता है, मन प्रबन्धन व आचरण प्रबन्धन से जाता है।
परम्+आत्मा=परमात्मा; हमारे द्वारा परम् आत्मा ही महानता घटित करवा सकती है।इसको हमारी शिक्षा, योग पूर्ण शिक्षा व आचरण ही हमारी महानता स्थापित करती है।अनेक ग्रन्थों से यही स्पष्ट होता है। अट्ठानवे प्रतिशत उस महानता को देख ही नहीं पा रहे हैं।उनका उस पर आचरण, प्रयत्न, प्रयोग तो बड़ा मुश्किल।इस लिए योग जरूरी है।मन चंगा तो कठौती में गंगा, कुम्भ में सागरसागर में कुम्भ.,वसुधैब कुटुम्बकम,सर्वेभवन्तु सुखिनः..... आदि की स्थिति योग से ही सम्भव है। जो अपने भौतिक विकास के लिए,अपनी जाति अपने मजहब के लिए, लोभ लालच के लिए दूसरे को कष्ट देने को भी नहीं चूकते तो इसका मतलब है उनका नजरिया ही गलत है।वह योग शिक्षा से ही सम्भव है। यूनेस्को, संयुक्त राष्ट्र संघ भी2002ई0 को मूल्य आधारित शिक्षा की वकालत कर चुका है।


      विद्यालय व शिक्षक, विद्यालय व शिक्षकों प्रति संस्थाओं व सरकारों का रवैया, प्रशासन व पुलिस ने की मदद, नौकरशाही व नेताशाही पर नियंत्रण व प्रशिक्षण आदि से ही ये सम्भव है। इस हेतु पुलिस, शिक्षक व संविधान रक्षक संस्थाओं की मिलीभगत की सक्रियता को क्रांतिकारी कानून की आवश्यकता है।जिसे कि ज्ञान व संविधान आधारित वातावरण बन सके व वैचारिक क्रांति, मानसिक क्रांति हो सके।इसमें योग ही सहायक है।


   योग ही हमें सन्तुलन करना सिखाता है। वह हमें बताता है-हमारे अंदर ईश्वर है।दूसरों के अंदर ईश्वर है। हमारे अंदर जो दिव्य है वह कैसे विस्तार पा सकता है?हम व जगत के तीन रूप हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण।हमें पहले अपने को पहचानना जरूरी है।हम कौन हैं?हमारे हाड़ मास शरीर को एक दिन मर ही जाना है। जीवन पथ पर रोज हजारों आते हैं और जाते है। हमें महानताएं महान बनाती है।महान हमारा हाड़ मास शरीर नहीं आत्मा है।उसे परम् हो जाने का अबसर योग ही है।हमारे नजदीक हमारी विश्व सरकार है -हमारी आत्मा।जो किरण है, लहर है।जो सूरज स्वयं सूरज है,जो स्वयं सागर है। यही से विश्व बंधुत्व, विश्व सरकार, अखण्ड भारत/दक्षेस सरकार का स्वप्न उजागर होता है।


कटरा विधान सभा क्षेत्र से एक अलख जग सकती है,जो संयुक्त राष्ट्र संघ व अमेरिका आदि तक भी जा सकती है। पांच पांडव ही काफी हैं, पंच प्यारे ही काफी हैं......
#अशोकबिन्दु
#nishantdas
parth

Tuesday 11 February, 2020

भेद से ऊपर उठकर दुनिया मुट्ठी में!!!

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1252440551810649&id=100011341492358


जड़ तक कोई जाना नहीं चाहता!!आरोप प्रत्यारोप से कोई शान्ति व विकास नहीं ला सकता!!सबकी भागीदारी भी जरूरी!!!
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85 प्रतिशत+अल्पसंख्यक=राजनैतिक दशा???किस ओर संकेत दे सकती है???देश का मतलब क्या है?उस देश के रहने वाले लोग, जीवजन्तु, वनस्पति, प्रतीक चिह्न, धरोहरों का सम्मान!!!विकास!!!संरक्षण!!सबकी भागीदारी!!!आचार्य चतुर सेन/वयम रक्षाम: की माने तो आदि काल से ही संघर्ष सत्ता भागीदारी, संसाधन वितरण, सबका सम्मान आदि को लेकर था।कार्ल मार्क्स की माने तो, दुनिया को बर्बाद करने वाला सत्तावाद, पूंजीवाद, पुरोहितवाद, जातिवाद/कुल वाद/जन वाद था।इतिहास उठा कर देखें ,जन का अर्थ क्या था?जनपद का मतलब क्या था??किसी क्षेत्र का अध्ययन करें!जातिवाद,सामन्तवाद,माफियागिरी ही हावी है।क्षेत्र में कुछ परिवार हाबी रहते हैं,फिर उनके रिश्तेदार, सम्पर्की, जाति के लोग।कुछ लोग कहते है,अब कहाँ है सामन्त बाद?हम कहते रहे हैं-अभी तो भरपूर मात्रा में है सामन्तवाद।चाणक्य ने कहा है-सामन्त का अर्थ है-पड़ोसी।वार्ड/गांव/शहर के दबंग, माफिया, जातिबल आदि किसी न किसी नेता के साथ खड़े होते है,क्षेत्र में कुछ परिवारों के चारो ओर राजनीति मंडराती है। व्यवस्था परिवर्तन/जाति व्यवस्था समाप्ति पर कौन बल देता है?सन2011से2025 तक का समय देश व दुनिया के लिए महत्वपूर्ण है।भविष्य उसके साथ खड़ा होगा, जो सबके साथ खड़ा होगा।ऐसे में आध्यत्मिक व मानवता ही सभी समस्याओं का हल कर सकती है।ये भी विचारणीय विषय है-किस राजनैतिक दल में नए प्रत्याशी स्थान पा रहे हैं और किस में पुराने ही ?कैसा व्यवस्था परिवर्तन??क्षेत्र में कुछ परिवारों तक राजनीति केंद्रित क्यों??


https://www.facebook.com/groups/1025404947641650/permalink/1400003973515077/


सबका साथ सबका विकास सबकी भागीदारी!!
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 मानव समाज, सत्ता व तन्त्र गड़बड़झाला हो गया है,अराजक होगया है।शायद ऐसा वैदिक काल से ही था, इसलिए वेदों को कहना पड़ा-मनुष्य बनो फिर आर्य/देव मानव बनो।हमें तो ये लगता है-अभी मनुष्य पशु मानव ही है।सुबह से शाम तक, शाम से सुबह तक हम आप सब वह करते आते हैं जो वास्तव में नहीं करना चाहिए। हर स्तर पर हमें इससे मतलब नहीं है कि क्या होना चाहिए, होने से मतलब नहीं है।हम जी कर रहे हैं-ठीक है।हम अपनी व जगत की पूर्णता (योग/आल/अल/all/आदि) के आधार पर कुछ बहु नहीं देखते।इसलिए आदिकाल से ही दुनिया आतंकवाद, असुरत्व,मनमानी, चापलूसी, लोभ लालच आदि व इसके लिए जाति, मजहब,अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, देशी विदेशी आदि के नाम पर विश्व व समाज को अशान्ति, अविश्वास ,हिंसा आदि में धकेलते रहते हैं।
हम प्रकृति अंश ब्रह्म अंश, प्रकृति अभियान/नियम /सुप्रबन्धन के आधार पर नहीं करते। ब्राह्मंड व जगत में सब कुछ नियम से है,चन्द तारे, जन्तु वनस्पति आदि सब नियम से हैं,सिर्फ मनुष्य की छोड़ कर।

  हमारा पूरा जीवन शिक्षा जगत में हो गया।जिनमे से 25 से वर्ष शिक्षण कार्य करते हो गए। हमने देखा है- अध्यापक, विद्यार्थी, अभिवावक, शिक्षा कमेटियों आदि के माध्यम से शिक्षा जगत, विद्यालय के तो सम्पर्क में है लेकिन मतलब अपनी सोंच से ही है।शैक्षिक मूल्यों से नहीं।उन्हें इससे मतलब नहीं क्या होना है?बस, जो हम चाहते हैं वह ठीक है।। कुर वाणी है-त्याग, नजरअंदाज करना वह जो हमेंव जगत को भविष्य में अराजक बनाने वाला है,दूसरे को कष्ट देने वाला है।

समाज, देश व विश्व में अनेक ऐसे हैं उन्हें सारी मनुष्यता, सारे विश्व से मतलब नहीं।सुर से सुरत्व से मतलब नहीं।वास्तव में धर्म व अध्यात्म से मतलब नहीं।ईश्वर से मतलब नहीं।सब,ढोंग!!!!जव सारी दुनिया सारे मनुष्य ईश्वर की देन है,तो भेद क्यों??सभी के अंदर ईश्वर की रोशनी मान कर सबका मन ही मन सम्मान नहीं। अहिंसा क्या है?यही अहिंसा है,मन मे किसी से भेद, द्वेष न रखना। हम जब तक इस दशा को प्राप्त नहीं हो जाते कि सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर तो ईश्वर के प्रेमी कैसे??

https://www.facebook.com/groups/1025404947641650/permalink/1396428563872618/

अशोक कुमार वर्मा' 'बिंदु'
www.ashokbindu.blogspot.com

Friday 7 February, 2020

जीवन में जाति, मजहब, धर्म स्थलों आदि की नहीं रोटी कपड़ा, मकान, शिक्षा, शांति, सम्मान, सत्ता में सहभागिता आदि की जरूरत!!!

हमें कोई साधना / उपासना आदि करना है तो उसके लिए धर्मस्थल जरूरी नही है। समाज हमें किस जाति/मजहब का मानता है ये महत्वपूर्ण नहीं है।शांति, धैर्य,त्याग, समर्पण, शरणागति,सेवा आदि महत्वपूर्ण है।गुरु,आत्मा, मार्गदर्शक आदि महत्वपूर्ण है।हमें अनेक स्थानों पर गुरुद्वारों पर नाज है।जब हम समाज से त्याज्य एक मुस्लिम गर्भवती महिला को एक गुरुद्वारा में रहते हुए, जीवन यापन करते हुए व नमाज अदा करते हुए देखते हैं। जब हम दिल्ली के एक अस्पताल में भर्ती अपने बीमार  परिजन के साथ उपस्थित मुस्लिम परिवार को नजदीक के एक गुरुद्वार में नमाज,भोजन आवास की व्यवस्था प्राप्त करते देखते हैं।
जरूरी नहीं की  अपने देवी देवताओं की उपासना हेतु लाखों रुपए व्यय किए जाएं।महत्वपूर्ण है जिन प्राणियों में आत्मा का निवास है ,उसके लिए सुप्रबन्धन खड़ा करना,उनको सेवा देना है ।