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Monday 9 March, 2020

हमें तुम्हारे धर्म समझ में ही नहीं आते:::अशोकबिन्दु

समाज में धर्म नहीं होता भीड़ में धर्म नहीं होता धर्म तो व्यक्ति के नजरिया में होता है धर्म तो व्यक्ति की सोच में होता है!!!

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धर्म शब्द संस्कृत की ‘धृ’ धातु से बना है जिसका अर्थ होता है धारण करना । परमात्मा की सृष्टि को धारण करने या बनाये रखने के लिए जो कर्म और कर्तव्य आवश्यक हैं वही मूलत: धर्म के अंग या लक्षण हैं । उदाहरण के लिए निम्न श्लोक में धर्म के दस लक्षण बताये गये हैं :-

धृति: क्षमा दमो स्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह: ।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।

विपत्ति में धीरज रखना, अपराधी को क्षमा करना, भीतरी और बाहरी सफाई, बुद्धि को उत्तम विचारों में लगाना, सम्यक ज्ञान का अर्जन, सत्य का पालन ये छ: उत्तम कर्म हैं और मन को बुरे कामों में प्रवृत्त न करना, चोरी न करना, इन्द्रिय लोलुपता से बचना, क्रोध न करना ये चार उत्तम अकर्म हैं ।

अहिंसा परमो धर्म: सर्वप्राणभृतां वर ।
तस्मात् प्राणभृत: सर्वान् न हिंस्यान्मानुष: क्वचित् ।

अहिंसा सबसे उत्तम धर्म है, इसलिए मनुष्य को कभी भी, कहीं भी,किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए ।

न हि प्राणात् प्रियतरं लोके किंचन विद्यते ।
तस्माद् दयां नर: कुर्यात् यथात्मनि तथा परे ।

जगत् में अपने प्राण से प्यारी दूसरी कोई वस्तु नहीं है । इसीलिए मनुष्य जैसे अपने ऊपर दया चाहता है, उसी तरह दूसरों पर भी दया करे ।

जिस समाज में एकता है, सुमति है, वहाँ शान्ति है, समृद्धि है, सुख है, और जहाँ स्वार्थ की प्रधानता है वहाँ कलह है, संघर्ष है, बिखराव है, दु:ख है, तृष्णा है ।

धर्म उचित और अनुचित का भेद बताता है । उचित क्या है और अनुचित क्या है यह देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर करता है । हमें जीवनऱ्यापन के लिए आर्थिक क्रिया करना है या कामना की पूर्ति करना है तो इसके लिए धर्मसम्मत मार्ग या उचित तरीका ही अपनाया जाना चाहिए । हिन्दुत्व कहता है -

अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वत: ।
नित्यं सन्निहितो मृत्यु: कर्र्तव्यो धर्मसंग्रह: ।

यह शरीर नश्वर है, वैभव अथवा धन भी टिकने वाला नहीं है, एक दिन मृत्यु का होना ही निश्चित है, इसलिए धर्मसंग्रह ही परम कर्त्तव्य है ।

सर्वत्र धर्म के साथ रहने के कारण हिन्दुत्व को हिन्दू धर्म भी कहा जाता है ।

Sunday 8 March, 2020

गुणवत्ता के संवाहक......

संवाहक!
""""""""'"'"'''''
किसी ने कहा है कोई कौम  इस बात पर जिंदा रहती है कि उस कौम में कौम पर मरने वालों की संख्या कितनी रही है?इस लिए हमें गुणवत्ता के लिए जान देकर भी सतर्क रहना चाहिए।इसलिए ठीक कहा गया-मृत्यु है आचार्य।तो किसी ने योग के आठ अंग में से पहला अंग यम को भी मृत्यु से जोड़ा । अफसोस है आज कल स्कूल, विद्यार्थी, शिक्षक, अभिवावक ही ज्ञान स्थिति के हिसाब से वातावरण व गुणवत्ता के लिए जीना नहीं चाहते।
कमलेश डी पटेल दाजी ने ठीक कहा है-शिक्षा कमजोर दिल वालों के लिए नहीं है। आज हम जहां पर खड़े हैं,उसके लिए हमारी आत्मा व आत्माओं का योगदान महत्वपूर्ण है,किसी को ये दिखाई न दे तो हम क्या करें?
ध्यान रखो, क्रांति हाड़ मास शरीर के रंगरूप,कद काठी, जाति मजहब,अमीरी गरीबी......आदि भौतिकताओं के कारण नहीं हुई।अनेक देश ऐसे हैं जहां छोटे बच्चे भी कहते हैं हमारा लक्ष्य है देश व समाज की रक्षा करना ।लेकिन समाज व देश की रक्षा उस देश के व्यक्तियों ,प्राणियों, वनस्पति आदि के सम्मान के साथ महापुरुष की नजर में चरित्र गढ़ने से है।वर्तमान समाज व सामजिकता के नजर में चरित्र गढ़ने से नहीं।


08मार्च महिला दिवस:: नारी वाद नहीं वरन सम सहअस्तित्व /सम सह सम्मान/आत्म निर्भरता का सम अवसर

                नारी के सम्मान में अब उत्तराधिकार नियम पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। जो दम्पत्ति दो या एक सिर्फ बेटी ही रखते हैं, उनके लिए स्पेशल सरकारी सुविधाएं की व्यवस्था आबश्यक है।

                  नारी सशक्तिकरण का मतलब क्या  है?  नारी क्या है?  नारी सिर्फ स्थूल शरीर है स्थूल जगत में.?पुरुष क्या है?स्थूल में पुरुष स्थूल शरीर है?अर्थात प्रकृति  में ही नर मादा हैं.अध्यात्म में आत्मा/परमात्मा पुरुष  है  व  प्रकृति स्त्री है.यहां पर श्री अर्धनारीश्वर अवधारणा के पीछे छिपे दर्शन  को समझना आवश्यक है.दोनों  के बीच समअस्तित्व आबश्यक है..जब बात सम अस्तित्व की हो जहां पर, वहां नारी सशक्तिकरण या पुरुष सशक्तिकरण  से क्या मतलब है ?दोनों का सशक्ति करण आवश्यक है अर्थात दोनों  के बीच समसम्मान व समस्तित्व आबश्यक है. लेकिन आज  के भौतिक भोग वादी सोंच में ये असम्भव है. दोनों का परस्पर अंहकार वादी होना व दोनों  के बीच तू तू में में होना विकार वान  है.

नारी सशक्ति करण  के गुण

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नारी सशक्तिकरण का मतलब नारीवाद  नहीं है.वरन् नारी को आत्मनिर्भर बना पुरुष  के बराबर में ला खड़ा करना है.पुरुष  के बराबर  ला खड़ा  करने  का मतलब है-- आत्मनिर्भर  हो कर समाज के विकास  में सहभागिता न कि पुरुष के साथ टकराव खड़ा करना
या  पुरुष के समक्ष समस्या खड़ी करना.स्त्री पुरुष के  बीच करीबी भ्र्म की दीवार टूटना.लैंगिक असमानता का विरोध.परस्पर मित्रभाव/सम्मान को बढ़ावा.इस बात का ज्ञान होना कि नर मादा तो हम सिर्फ प्रकृति में हैं.ब्रह्म जगत में हम सब आत्मा  है.हमारा स्थूल शरीर तो सिर्फ प्रकृति है.प्रकृति तो स्त्री ही है. नारी सशक्तिकरण ने उस समाज को सोचनें  को विवश कर दिया है जो सोचता था कि स्त्री तो दमन/दण्ड/दवाव/मनमानी/आदि के लिए है.
 नारी सिर्फ अपने स्थूल व सूक्ष्म(भूत/प्रेत) शरीर से ही नारी है.अपने भाव व मनस शरीर से वह पुरुष  ही है.जब उसे उसके भाव व मनस स्तर का पुरुष इस जगत में नहीं मिलता तो वह अपनी सम्पूर्णता को  नहीं पाती.या फिर वह तटस्थ हो आत्मा को पा जाये.जहां आत्मा अलिंगी  होती  है.

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स्तर | प्राकृतिक  | साधना
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स्थूल|काम  |   ब्रह्मचर्य
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भाव  |भय    | अभय
         |घृणा  | प्रेम
         |क्रोध  | करुणा
         |हिंसा  | मैत्री
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सूक्ष्म  |सन्देह  | श्रद्धा
          | बिचार| विवेक
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मनस |कल्पना|सङ्कल्प
         |स्वप्न   |अतीन्द्रिय
         |           | दर्शन
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 हमारे अंदर भी नगेटिव पजटिव अर्थात स्त्री पुरुष अर्थात प्रकृति ब्रह्म होता है.अतः योग से हम आंतरिक सम्भोग  की दशा  भी  पा सकते है.
 नारी अपने अस्तित्व को पहचाने.अपने को पहचाने. उसकी भोग वादी नीतियां उसका सम्मान नहीं बड़ा सकतीं.वह सिर्फ हड्डी मांस का बना शरीर नहीं है.ऐसे में सिर्फ हड्डी मांस के बने शरीर की आवश्यकताओं  के  लिए  जीने से उसे सम्पूर्णता प्राप्त नही हो सकती.

 नारी सशक्तिकरण के दोष
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आज के आधुनिक भौतिक भोगवाद में नारी का सशक्तिकरण कुल/संस्था/समाज में अनेक विकार ला रहा है.विभिन्न शोध कह  रहे हैं कि 90 प्रतिशत से ज्यादा दहेज एक्ट केस फर्जी होते हैं.वे निरर्थक एक्ट का दुरूपयोग हौते  हैं.आज अनेक परिवारों के अध्ययन से समाजशास्त्रियों  को ज्ञात हो रहा है कि परिवारों के विखरने / वुजुर्गो के उपेक्षा का कारण स्त्री ही है. आज स्वयम नारी ही अपने  को भूल रही है कि हम कौन हैं?हम सिर्फ हड्डी मांस का बना शरीर नहीं है?नारी व पुरुष क्या है?उसे सिर्फ स्थूल निगाह से देखना अपूर्णता है.पूर्णता बिन सन्तुष्टि कैसे? नर नारी प्रकृति में ही हैं.अपने को प्रकृति से परे  भी जानना अति आबश्यक है.जो कि शाश्वत/अनन्त/अमोघ  है..जो क्षयवान/क्षणिकहै उससे असीम/सदैव भर का आनन्द कैसे?हमारा नजरिया ही हमारे हालातों  के लिए दोषी  होता है.दरअसल हम अपने से ही दूर होते जा रहे हैं.हमारी आत्मा अलिंगी  है.हमारा शरीर स्त्री क्यों है?

   आज स्त्री ही स्त्रैण गुणों से दूर  होती  जा रही है.स्त्रैण गुण क्या है?स्त्री को मातृ शक्ति  क्यों कहा गया है? प्रकृति को स्त्रीया अपने स्थूल शरीर  को भी स्त्री क्यों कहा गया है?सांसारिक/कृत्रिम बस्तुओं  को पूजने  से पहले/कन्या पूजन से पहले इन सवालों  को। जानना आवश्यक  है?

आदिकाल से अब तक जगत को  जो नारी सम्माननीय रही हैं, उनके जीवन दर्शन  को जानना जरूरी  है. बिचारों को अपना नजरिया बनाना आबश्यक  है.आज तुम बात बात पर धमकिया दिखती फिरती हो. जरा महान नारियों की ओर तो देखो. रुपयों के लिए नाचने गाने वालियों / अंग प्रदर्शन करने वालियों की नकल करना बन्द करो.किरण बेदी/कल्पना चावला/आदि से प्रेरणा लो.उनका नजरिया/विचार दर्शन जानो,उसे अपना नजरिया बनाओ.अपनी प्रतिभा सें किसी प्रकार  का समझौता  न करो.चरित्र क्या है ?इसको जानो.समाज की नजर में नहीं,महान नारियों  की नजर  में जियो,लिंग भेद की मानसिकता त्यागो.
नारी को भी पुरुषों  की भांति आत्मनिर्भर  होना चाहिए.हाँ,ये सत्य ऐसे में उसे आधा संघर्ष नारी होने  के नाते करना होगा. लेकिन ये सत्य  है कि कानून/मानवता का साथ लेकर यदि ईमानदारी से संघर्ष करे तो वह अवश्य सफल  होगी.सशक्त नारी भी आज कुल व समाज  में  समस्या नजर आ रहीं है.कुल में जहां वह शादी के बाद जाती है,वहां वह पूरे कुल की उम्मीदों से बन्धी होती है,कुल की भी कुछ मर्यादाएं  होती हैं.क्यों न वह घर  में कितनी भी रुपया लाती  हो लेकिन बुजुर्ग सास ससुर,नन्द आदि  की  उम्मीदें  भी होती  हैं. सबकुछ रुपया ही नहीं होता.शादी करने का मतलब "मैं" खत्म हो जाना चाहिए. मैं--तू में हम जीवन के आनन्द से दूर  होते  जाते  हैं.तू तू में में में पर उतर  आते है.हमें  जो उपलब्ध होता ह,उसको। ही हम सहजता  में नही नही जी पाते.हमारे सनातन विद्वानों ने तो शादी का उद्देश्य "धर्म" बताया है  न कि "काम".हम सुख दुःख के पाट के बीच पिसते रहते है.आनन्द को नहीं पाना चाहते.आनन्द कैसे मिलता है?इसका ज्ञान ही नहीं?
 एक घटना के हम साक्षात् सबूत हैं.बरेली से एक युवती की शादी बीसलपुर में हो जाती है.ओशो ने कहा है,ठीक कहा है - आज कल "शादी करना" अबैध है.हालांकि शादी एक आवश्यकता है.हाँ,तो वह शादी हो कर अपने ससुराल आ गयी. उसका मन तो बरेली में ही लगा था.बेचारे उसके पति ने उसके सारे ख्बाब पूरे करने की कोशिस करता रहा.वह इसी बात पर अड़ी रही कि  क्यों न बरेली शिफ्ट  हो जॉए?लेकिन शादी का मतलब ये तो नहीं?या तो पहले ही ये तय हो.पति अपने बुजुर्ग माता पिता को छोंड़ बरेली में कैसे शिफ्ट हो जाये?शादी का मतलब "मैं" में जीना नहीं, "हमसब" में जीना है.जैसे तैसे उसने डेढ़ वर्ष काट और फिर जब बरेली गयी बापस नहीं आयी,ऊपर से दहेज एक्ट लगवा दिया.वह अपने यार के साथ स्वछन्द हो जीवन काट रही है.इस तरह का एक केस और एक युवती शादी से पहले ही एक युवक से दिल लगा बैठी,सब जानकारी होने के बाद भी उसके माता पिता ने दूसरी जगह शादी कर दी.वह एक दो बार अपने ससुराल गयी ,फिर मायके में ही रहने लगी.मायके वालों के दवाब पर वह आत्महत्या कर बैठी,ऐसे में बेचारे ससुराल बालों का क्या दोष?ससुराल वालों पर दहेज़ एक्ट थोप दिया गया.,...... इसी तरह हम अन्य सशक्त नारियों को देख रहे है , जो अपने मायके/ससुराल को छोड़ कर तीसरी जगह पर नौकरी के वास्ते रह रहीं है.वे संस्था/आसपड़ोस में क्या गुल खिलाती है?कुछ कहा नहीं जा सकता?

 नारी सशक्तिकरण  व  मानवता
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नारी सशक्तिकरण का मतलब मानवता व लैंगिक समानता को पल्लवित विकसित करना है.नारी को आत्मनिर्भर बनाना है न कि पुरुष समाज / समाज/संस्थाओं में बिकार पैदा करना है.मानवता के लिए हर वाद निरर्थक  है.समसम्मान आवश्यक है.सम अस्तित्व आबश्यक है.क़ानूनी व्यबस्था/मानवता/अध्यात्म आबश्यक  है.निरा कोरा भौतिक भोग वाद विकार पैदा करने वाला है.सन्तुलन ही  जीवन है.

ashok kumar verma "bindu"

Saturday 7 March, 2020

हम कब तक भड़केंगे?कब तक भीड़ का हिस्सा बनेंगे?ईसा सुकरात के गलियारे के अलग अलग खड़े मस्त इंसान को कब सुनोगे?वाद से काम नहीं चलने वाला!!

हमें खुशी होती है!!वर्तमान तन्त्र व नजरिया के रहते हम आप सुधरने वाले नहीं।माल्थस ने कहा था तुम्हारे सोच ,तुम्हारी जाति, मजहब आदि की नहीं चलेगी,कुदरत, आत्मा, परम् आत्मा का तन्त्र तुम्हारे तन्त्र, तुम्हारी सोच, तुम्हारी जातीय मजहबी सोंच को नेस्तनाबूत कर देगा।हमें खुशी है, हम तो कुदरत, आत्मा, परम् आत्मा का साथ चाहते है।भाड़ में जाये तुम्हारी जातीय मजहबी व्यवस्थाएं....
अब भी वक्त है, संभल लो!!
वक्त ऐसा आएगा जब मनुष्यता या तो हा हा कार कर रही होगी या वर्तमान व्यबस्था, सोंच, आस्था आदि को बदल रही होगी
। कुदरत में कुछ भी स्थिर नहीं है
परिवर्तन शील है।परिबर्तन शाश्वत नियम है।आप ने ये कैसे सोच लिया कि हमारी वर्तमान आस्थाएं, सोंच, व्यबस्था के स्तर से ऊपर अन्य स्तर नहीं?अनन्तता गतिशील है। हमारी आत्मा ही हमारी धुरी को हमसे पकड़वा सकती है।मानवता ही व्यबस्था बेहतर दे सकती है।हमें खुशी है कि हम जो चाहते हैं,वह सुनने को भी तैयार नहीं हो?कुरान की शुरुआती आयतें सुनाई नहीं दे रही है, गीता के सन्देश सुनाई नहीं दे रहे है,वेद ले संदेश सुनाई नहीं दे रहे है....पुरोहितबाद, सत्तावाद, जातिवाद, पूंजीवाद आदि की कब तक सुनोगे?वर्तमान नेताओं, पंडितों, मौलबियों आदि की कब तक सुनोगे?कुदरत के खेल के सामने जब सन्नाटा, कोहराम होगा  तब हमें याद करना। श्मसान, कब्रिस्तान में तो जीवन की बडी बडी बातें हो जाती है। वहाँ बड़े बड़े फ्लॉसफ़र नजर आते हैं।लेकिन रोजमर्रे के लम्हों में..???एक आचार्य कहते थे मरने से पहले मर जाओ। कुदरत, आत्मा,परम् आत्मा के सामने अपने शून्य से हो जाओ। हनुमान का सूक्ष्म होना, उनका सूरज निगला.....आदि आपके लिए मजाक या अन्धविश्वास हो सकता है लेकिन  उसको महसूस नहीं कर सकते।अपनी आत्मा व मानवता से दोस्ती कर लो रास्ता कुदरत हमे देती रहेगी। दुनिया को हम नही, मौलबी पंडित नहीं, नेता अफसर नहीं चला रहे... ये अनुभव किया है क्या???तो फिर इनके कारण भड़कते क्यों हो?आत्मा की क्यों नहीं सुनते?मानवता की क्यों नहीं सुनते?भीड़ का हिस्सा क्यों बनते हो?
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सामजिकता के दंश!!
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Tuesday 3 March, 2020

मरना तो है ही, उसकी चिंता क्या करना? हजरत हुसैन /गुरु गोविंद सिंह/ओशो

ओ३म तत सत वाहे गुरु ! जय खालसा महागुरु!! कुछ तो राज है!!
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गुरु गोविंद सिंह में हमें ब्राह्मणत्व व क्षत्रियत्व दोनों के दर्शन होते हैं।वे सिख पन्थ के दशम गुरु थे।गुरु नानक से चला ये पन्थ सद्भावना, प्रेम, मानवता पर आधारित था।समय की मांग ने गुरुगोविंद सिंह में बदलाव किया । ये बदलाव समाज में अत्याचारों के खिलाफ साहस भरने के लिए आवश्यक था।उनका मिशन श्रीमद्भागवत गीता का ही मिशन था- ब्राह्मणत्व व क्षत्रियत्व के सह अस्तित्व को अंदर होने का।
हमने महसूस किया है, जब हम अंतर्मन से इस-"ओ३म तत सत वाहे गुरु!जय खालसा महागुरु !!" ;हम साहस से भर जाते हैं। कुछ तो राज है।हम कहते आये है, शब्दों के पीछे भी सूक्ष्म स्थिति छिपी होती है। गुरु गोविंद सिंह का जीवन समाज में व्याप्त हिंसा, अन्याय आदि के बीच एक प्रेरणा है।हमारी आत्मा हमे शेर बनाती है।हम उसे जगाएं तो....उनके द्वारा सिंह की उपाधि यों ही नहीं दी गयी।पंच प्यारे का प्रकरण याद है न?! जिसका कोई ऐसा लक्ष्य नहीं, जिसके लिए वह मर न सके तो वह का जीवन निरर्थक है। योग का पहला अंग है-यम, हमारा यम है-मृत्यु, त्याग, कुर्बानी।जिसके लिए हम विदेश की धरती पर हजरत हुसैन व ओशो को हमेशा याद करते रहेंगे।
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