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Sunday 19 April, 2020

जब नक्सलवाद पैदा हुआ था तो उसका अहिंसक आंदोलन से उम्मीद जगी थी जो न्याय को प्रेरित करती,लेकिन नक्सली हिंसा ने सब खेल बिगाड़ दिया::विलियम थॉमस!!

नक्सली आंदोलन 1967 से 2017 तक
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नक्सलवाद की उम्र 50 साल हो रही है पर इस पर काबू पाने में सरकारें नाकाम रही हैं. इस की वजहें हैं जिन का सीधा संबंध एकतरफा विकास से है. आजादी के बाद आम लोगों और किसानों को उम्मीद बंधी थी कि अब गांवगांव तक सड़क, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं और बिजली होगी लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो यह वर्ग मानने लगा कि पैसे वाले देखते ही देखते पैसे वाले होते जा रहे हैं और गरीब और गरीब होता जा रहा है.
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पर तब ऐसा सोचने वाले असंगठित थे. साल 1967 में बंगाल के एक गांव नक्सलवाड़ी से इस एकतरफा विकास के खिलाफ पहली सशक्त क्रांति हुई थी. इसलिए इस क्रांति का नाम नक्सलवाद पड़ गया. नक्सलवाद के जनक थे भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के चारू मजूमदार और कानू सान्याल, जिन की मुलाकात इत्तफाक से जेल में हुई थी. उन दोनों का मानना था कि किसानों और मजदूरों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियां और लोकतांत्रिक व्यवस्था जिम्मेदार है.
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सशस्त्र हिंसा फैली तो देखते ही देखते शोषित और वंचित लोग नक्सलवाद को लाल सलाम ठोंकने लगे. 50 सालों में नक्सली आंदोलन काफी बदला भी है. आज घोषित तौर पर उन का कोई नेता नहीं है और वे खुद कई दलम (दलों) में बंट गए हैं पर उन का मकसद आज भी ज्यों का त्यों है. कुछ वैचारिक मतभेदों के चलते चारू मजूमदार और कानू सान्याल अलग हो गए थे. चारू मजूमदार की मौत 1972 में ही हो गई थी जबकि कानू सान्याल ने साल 2010 में फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली थी.
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उम्मीद से कम वक्त में नक्सलवाद पश्चिम बंगाल से होता आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड और ओडिशा में फैला. आज हालत यह है कि आंशिक और पूरी तरह से नक्सलप्रभावित राज्यों की संख्या 10 और जिलों की संख्या 190 है. फर्क इतना है कि कहीं नक्सली गतिविधियां न के बराबर हैं तो कहीं उम्मीद से ज्यादा हैं.
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आज के नक्सली किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित नहीं रह गए हैं और न ही पहले की तरह लोकतंत्र को कोसते हैं. इस की एक बड़ी मिसाल आदिवासी क्षेत्रों में भाजपा को मिलती सफलता है जो 20 साल पहले आदिवासी वोटों के लिए तरस जाती थी. कम्यूनिस्ट विचारधारा के होते हुए भी नक्सली आमतौर पर धार्मिक संगठनों को तंग नहीं करते.
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अब नक्सलियों का असल मकसद उन सरकारी योजनाओं में अड़ंगा डालना है जो उन्हें जंगलों को खत्म करती लगती हैं. सड़कें बनेंगी तो आदिवासी जंगलों से बेदखल हो जाएंगे और जंगलों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा हो जाएगा. नक्सली अब इसी आशंका में सोते और जागते हैं और जब भी मौका मिलता है, हिंसा को अंजाम दे देते हैं. सरकार ने नक्सलप्रभावित इलाकों को छावनी सा बना दिया है जिस से नक्सलियों को खास चिढ़ है.
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उधर, आदिवासी भी सैन्यबलों से परेशान हैं. इसलिए वे नक्सलियों का साथ देते हैं. हर तरह की सूचना नक्सलियों के पास कैसे पहुंच जाती है, यह किसी को नहीं पता और न ही यह कि आम आदिवासी कैसे नक्सलियों को फंडिंग करता है. उलट इस के, सरकार या किसी और को तो रत्तीभर भी नहीं मालूम कि नक्सली किस जगह से अपनी मुहिम को अंजाम देते हैं, अब उन का नेता कौन है और आगे वे क्या करेंगे.
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नक्सली हिंसा के अर्थों और अनर्थ से दूर सिरदर्द की बात सरकार के लिए यह है कि वह भले ही लोकतंत्र व समानता का राग अलापती हो, लेकिन अभी तक वह आदिवासियों का भरेसा नहीं जीत पाई है. यह बात बस्तर सहित दूसरे नक्सलप्रभावित राज्यों में साफसाफ दिखती भी है कि अभी तक आदिवासी अंचलों का अपेक्षित विकास नहीं हुआ है. नक्सली इस बात के लिए सरकार को ही जिम्मेदार मानते हैं.
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हिंसा की छोटीबड़ी वारदातें होती रहेंगी, नक्सली दहशत कायम रहेगी, बेगुनाह आदिवासी मारे जाते रहेंगे और उन के साथ में जवान भी. लेकिन सरकार कुछ नहीं कर पाएगी. ऐसे में हल क्या है और कैसे होगा, यह कोई नहीं सोचता. सरकार भी हिंसा का जवाब हिंसा से दे कर नक्सलियों को उकसाती ही लगती है. अब थोक में बेरोजगार आदिवासी युवा और औरतें नक्सली संगठनों में शामिल हो रहे हैं क्योंकि सरकार उन्हें शिक्षा व रोजगार नहीं दे पा रही.


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