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Sunday 27 February, 2011

एक यह भी ब्लोग:क्रान्ति दूत


               ब्लोगर से जुड़े मुझे एक वर्ष से अधिक समय होने को आया और इण्टरनेट प्रति रुचि पैदा हुई. अपनी अभिव्यक्ति को मंच मिला.कक्षा आठ से लेखन कार्य मेँ लगा हूँ.लगभग पचास पुस्तकों की सामग्री समीप मैजूद है.स्थानीय पत्र पत्रिकाओं के अलावा कहीँ प्रकाशित नहीँ हो पाया.कम से कम इण्टरनेट ने मुझे विश्व स्तर पर अभिव्यक्ति के लिए एक मंच तो दिया. मेरे मिलने वाले कुछ व्यक्तियों का कहना है कि मुट्ठी भर लोग तो ही सिर्फ जुड़े हैँ इण्टरनेट से.हमेँ भी क्या चाहिए?कुछ लोगोँ का ही साथ चाहिए.जो हमारे लाइफ मिशन के खिलाफ व हमारे असहयोगी हैँ उनकी नजर में हम यदि बेहतर नहीँ हैँ तो क्या ?


किसी संस्था ने रिसर्च कर रखी है कि
कामकाजी बुद्धि का अभाव होता है अतिबुद्धिवादी लोगों व कुछ प्रतिभाशाली व्यक्तियों मेँ.ओशो ने भी कहा है कि अन्तर्मुखी की सघनता व्यक्ति को स्थूल से कर्म मेँ व्यवधान ला देती है.रामकृष्ण परमहंस को निन्यान्वे प्रतिशत लोग पागल ही समझते थे.वे अपनी अन्तर्मुखिता मेँ अपने शरीर के संचालन व नियन्त्रण से शून्य हो जाते थे.आचार्य श्री राम शर्मा का कहना है कि जीवन मेँ एकान्त के क्षण महापुरुष होने की भी सम्भावनाएं रखता है.



अन्तर्मुखी व्यक्ति के लिए भीड़ प्रतिकूल होती है.ओशो ने कहा है कि व्यक्ति का धर्म व्यक्ति को भीड़ से अलग करता है.क्योंकि भीड़ का कोई धर्म नहीं होता.भीड़ तो सम्प्रदायों मेँ जीती है.



अभी तक का मेरा जीवन...



बचपन से ही मैने अपने को अपने परिवार ,अपनी जाति, अपने मजहब, आदि मेँ अपने को अलग थलग पाया है.जब भी मैने अपने करीब किसी को पाया है तो वे यादव जाति से थे या मुसलमान थे.



अपना कौन होता है......



स्व का अर्थ होता है आत्मा और परमात्मा.इसके सिबा कौन अपना होता है?जिससे हमारे धर्म का सम्मान व रक्षा हो वही अपना है.वैसे धर्म के रास्ते पर न कोई अपना होता है न पराया.



यह क्या क्रान्ति से कम है......




बचपन से न जाने कितनी बार बिखरा हूँ न जाने कितनी बार बना हूँ?मेरे उत्साह मेरी क्षमता को कमजोर करने वाले वे थे जो हमारे हितैषी बनते थे. ऐसे मेँ परिवार ,जाति व मजहब की दीवारें तोड़ जब मैं आगे बढ़ा तो चैन मिला.


इण्टरनेट व मै......



अभी एक दैनिक समाचार पत्र अमीर खुसरो मेँ एक लेख'जनक्रान्तियों में दिखते इण्टरनेट के फिंगर प्रिंट' प्रकाशित हुआ .जिसमे लिखा गया-




" तीस साल से इमरजेंसी लगाकर बैठी मुबारक की सरकार के खिलाफ पहले लोग 'इस पार या उस पार ' के अन्दाज मेँ तहरीर चौक पर जमा क्योँ नहीं हुए?शायद पहले मिस्र की जनता को जोड़ने वाला वह माध्यम नहीं था जो पिछले पन्द्रह सोलह सालों से आम विश्व नागरिक को संचार और सूचना की ताकत से लैस कर रहा है.इंटरनेट और उसके ढेर सारे अनुप्रयोग -फेस बुक,यूट्यूब,ब्लागिंग ,टिवटर,गूगल,याहू और ऐसी ही दूसरी नेट आधारित सेवाएं जिन्होंने आम आदमी को अभिव्यक्ति की ताकत दी है.असल दुनिया मेँ जो दो लफ्ज भी नहीं बोल सकता था ,वह वर्चुअल दुनिया मेँ कुछ भी कहने सुनने और करने को लगभग आजाद है."



वैचारिक क्रान्ति की तो हर पल आवश्यकता है.प्रजातन्त्र को यदि मजबूत होना है यदि मानवता को मजबूत करना है तो फिर हर व्यक्ति जो दर्द छिपाए बैठा है,अपने अन्दर जो भड़ास छिपाए बैठा है उसे बाहर आना ही चाहिए.क्रान्ति के लिए आधुनिक तकनीक व ज्ञान सराहनीय रहेगा.राजा राममोहन राय ,ज्योतिबा फूले,छत्रपति शाहू जी महाराज ,आदि जैसे यदि ब्रिटिश शासन मेँ न हुए होते तो इनके साथ क्या हुआ होता?यदि कबीर,रैदास,आदि मुस्लिम काल मेँ न हुए होते तो इनके साथ क्या हुआ होता.
हिन्दू समाज को सबसे बड़ी लड़ाई अपनोँ से ही लड़नी है नहीं तो.....मुझे अपने आसपास किसी हिन्दू मेँ वह जज्बा नहीं दिखाई देता जो
कम से कम अपने समाज का अहित न होने दे ? किसी ने ठीक ही कहा है कि वही कौमेँ आगे बढ़ती हैँ जिसके अन्तर्गत आने वाले व्यक्ति अपनी कौम के लिए त्याग करते है.



अफसोस की बात है कि मैँ अपने परिवार जाति मजहब व जिस संस्था में काम करता हूँ ,वहाँ लोग मुझे अपना रास्ता बदलने की बात कहते हैँ.हमेँ इन लोगोँ के आधार पर नहीँ,अपने धर्म व अपने महापुरुषोँ के बताए रास्ते पर चलना है.


क्रान्ति दूत बनने का प्रयत्न करते रहना है. अरविन्द झा जैसे ब्लागर मित्रों से वैचारिक परिमार्जन होता रहेगा.



संस्थापक,


मानवता हिताय विकास मंच समिति उ. प्र.

Wednesday 16 February, 2011

कौन चाहे मजबूत न्यायपालिका व नारको परीक्षण ब्रेन रीडिंग?

                                                समाज मेँ चार तरह के लोग हैँ-शोषण करने वाले, शोषित होने वाले, अबसरवादी व शोषण के खिलाफ चलने वाले.एक एक कर यदि प्रत्येक व्यकति का यदि अध्ययन करो तो ज्ञात होगा कि हर कोई मानवता से गिरा है.गिने चुने लोग हैँ समाज मेँ जो ठीक कहे जा सकते हैँ लेकिन उनकी इमेज क्या है समाज मेँ यदि वे भौतिक स्तर पर लोगोँ के बराबर या उच्च नहीँ हैँ?



            12 फरवरी को एक समाचार प्रकाशित हुआ था कि कोई सरकार नहीं चाहती मजबूत न्यायपालिका.सरकार भी स्वयं मेँ क्या है?कुछ व्यक्तियों का समूह.व्यक्ति मानवता व प्रकृति के खातिर अपनी सोँच, वस्तुओँ ,आदि का त्याग व बलिदान नहीँ कर सकता वरन दूसरे मानवोँ के अरमानोँ, मानवोँ, प्रकृति, आदि का कत्ल कर सकता है.वह न्याय, सत ,प्रेम, उदारता ,ज्ञान, सुप्रबन्धन, प्रकृति ,आदि के सामने समर्पण नहीँ कर सकता लेकिन अन्याय ,अज्ञानता ,असत्य ,हिंसा ,विदोहन ,आदि के सामने समर्पण कर सकता है.जब हम असत्य ,अन्याय, मनमानी ,अज्ञानता, हिंसा ,आदि संसाधनोँ का इस्तेमाल करते आये हैँ तो फिर कैसे चाहेँगे कि न्यायपालिका मजबूत हो?यही स्थिति नारको परीक्षण व ब्रेन रीडिंग को लेकर है.पूरी की पूरी मिशनरी तन्त्र कैसे लोगोँ के हाथोँ मेँ है?वे कब ऐसा चाहेंगे?

ASHOK KUMAR VERMA'BINDU'

<www.akvashokbindu.blogspot.com>





Saturday 12 February, 2011

वित्तविहीन मान्यताप्राप्त विद्यालयोँ के अध्यापकोँ की दशा दिशा

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From: akvashokbindu@yahoo.in
To: akvashokbindu@yahoo.in
Sent: Sat, 12 Feb 2011 19:59 IST
Subject: वित्तविहीन मान्यताप्राप्त विद्यालयोँ के अध्यापकोँ की दशा दिशा

उत्तर प्रदेश मेँ शिक्षा का अस्सी प्रतिशत से ऊपर का दायित्व वित्तविहीन मान्यताप्राप्त विद्यालय उठा रहे हैँ लेकिन इनसे सम्बन्धित अस्सी प्रतिशत अध्यापकोँ की दशा दिशा बड़ी चिन्तनीय है.यहाँ का अध्यापक प्रबन्धक ,प्रधानाचार्य व इनकी हाँ हँजूरी मेँ लगे पक्ष के सामने दबाव में बौना व हताश मजबूर हो कर रह जाता है.देखा जाए तो यह विद्यालय कुछ मुट्ठी भर लोगोँ की राजनीति, कूटनीति
,आदि का शिकार हो कर रह जाते हैँ.विभिन्न शिक्षक दल भी इन कुछ का ही चक्कर लगाते नजर आते हैँ.प्रजातन्त्र ,मानवाधिकार, कानून, आदि मूल्योँ व अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता के सम्मान की नियति के अभाव मेँ असलियत दब कर रह जाती है.

कुछ वर्षोँ से सम्बन्धित अध्यापक भी अपने अधिकारोँ के लिए जागरुक हुए हैँ लेकिन इनका नेतृत्व करने वालोँ की नियति क्या ठीक है?वर्तमान मेँ सम्बन्धित अध्यापक जिस स्थिति मेँ हैँ उस स्थिति मेँ इनका नेतृत्व कितना न्याय के पक्ष मेँ खड़ा होता है ? यह अलग बात कि सरकार से हक माँगने को लेकर अध्यापकोँ को एक जुट करने की कोशिस की जा रही है लेकिन अध्यापक वर्तमान मेँ जिन समस्याओँ से जूझ
रहा है ,उन के रहते अध्यापक सरकार से हक मिल जाने बाबजूद जरुरी नहीँ कि सभी अध्यापकोँ की दशा दिशा सुधर सके.

वर्तमान मेँ वित्तविहीन मान्यता प्राप्त विद्यालयोँ के अध्यापकोँ के द्वारा लखनऊ मेँ क्रमिक अनशन जारी है.शिक्षक दल के ओम प्रकाश शर्मा ,सुरेश कुमार त्रिपाठी ने कुछ दिन पूर्व कामरोको प्रस्ताव के तहत बुधवार को विधान परिषद की कार्यवाही स्थगित करने की माँग करते
हुए अंशकालिक शिक्षकों की नियुक्ति का मामला उठाया . शर्मा का कहना था कि वर्ष 1986मेँ इस तरह की अल्पकालिक व्यवस्था की गई थी लेकिन उसे समाप्त करने के लिए सम्बन्धित अधिनियम में आज तक संशोधन नहीं किया है.उन्होने कहा कि सम्बन्धित एक्ट के तहत सूबे मेँ बारह हजार से ज्यादा विद्यालयोँ को वित्तविहीन व्यवस्था मेँ मान्यता दी गई है.

इस पर माध्यमिक शिक्षा मन्त्री रंगनाथ मिश्रा ने कहा कि बारह हजार वित्तविहीन कालेजोँ के अंशकालीन शिक्षकों को अन्य अनुदानित कालेजों की भांति वेतन आदि देने के लिए दस हजार करोड़ रुपये चाहिए होँगे.ऐसे में उन्होने वित्तीय संशोधनोँ की कमी का हवाला देते हुए कहा कि अंशकालिक शिक्षकों को पूर्ण कालिक करना सम्भव नहीँ है.


मैं सोंचता हूँ यदि सरकार इन विद्यालयोँ के हक पर मोहर भी लगा दे तो भी क्या सभी अंशकालिक अध्यापकोँ का भला हो सकेगा ? इन बारह हजार विद्यालयोँ पर कैसी नियति के लोग हाबी हैँ?वे अभी तक समूची अंशकालिक अध्यापकोँ भीड़ प्रति दोहरा तेहरा व्यवहार नहीं करते आये हैँ क्या ?प्रजातान्त्रिक मूल्योँ से हट कर हाबी लोग दबंगता, मनमानी ,षड़यन्त्र ,हाँ हजूरी, चापलूसी ,नुक्ताचीनी,आदि मेँ
लगे रहते है.ये अपने स्वार्थ के पक्ष मेँ नियम बदलते बिगाड़ते रहते हैँ.शिक्षक दल भी इन्हीँ के चक्कर लगाते नजर आते हैँ.साधारण अध्यापकोँ की आवाज दबी की दबी रह जाती है. एप्रूबल व एड के दौरान प्रधानाचार्य ,प्रबन्धक,आदि की हाँ - हजूरी मेँ लगे व धन - बल से युक्त अध्यापक ही अबसर पाते है.


शेष फिर....

<www.ashokbindu.blogspot.com>

Thursday 10 February, 2011

माँ ने कहा था : अरविन्द जी की पुस्तक


Sent: Mon, 07 Feb 2011 20:17 IST
Subject:  माँ ने कहा था : अरविन्द जी की पुस्तक
इस धरती पर सबसे बड़ी साधना है नारी शक्ति को मातृशक्ति मानकर भोग की भावना से अपने को मुक्त रखते हुए प्रकृति-सहचर्य के साथ प्रेम ,मानवता, सेवा, योग, ज्ञान ,आदि मेँ जीना. 'काम'रुपी राक्षस खत्म नहीँ होता वरन माँ के शरणागत हो रुपान्तरित किया जा सकता है.माँ या प्रकृति धर्म हेतु संसाधन है. उससे जीवन है. ईश्वरीयतत्व को सृष्टि के लिए उभयलिँगी अर्थात अर्द्धनारीश्वर होना होता है और
माँ या प्रकृति को जन्म दे सृष्टि का प्रारम्भ करना पड़ता है.स्थूल तत्वोँ अग्नि ,आकाश पृथ्वी, जल ,वायु से शरीर निर्मित होता है.जो शरीर स्थूल व सूक्ष्म दृष्टि से ही सिर्फ स्त्री या पुरुष भेद मेँ होता है.भाव व मनस शरीर से स्थूल स्त्री पुरुष व स्थूल पुरुष स्त्री होता है.स्त्रैण शक्ति के उदय बिना पूर्णता नहीँ,अद्वेत नहीँ.

खैर!

अब अरविन्द जी की पुस्तक'माँ ने कहा था ' पर कुछ बात.
अरविन्द जी को मैँ ब्लागिँग के माध्यम से परिचित हुआ.उनका ब्लाग है-

<www.krantidut.blogspot.com>

और ई मेल है
<arvindsecr@gmail.com>

'अपनी बात' मेँ एक स्थान पर अरविन्द जी लिखते हैँ

" जहाँ एक ओर माँ के ममतामयी निर्मल नयन नीर की एक बूँद पूरी मधुशाला को चुनौती देती है.वहीं दूसरी ओर अन्तहीन माँ का आँचल कवच बन कर सारे जग की रक्षा करती है."
क्रान्ति दूत....?व्यवस्थाओँ के खातिर सुप्रबन्धन की खातिर यदि हम ईमानदार हो जाएँ तो हम सहज ही क्रान्ति दूत से लगने लगते हैँ.
स्त्रैण गुणोँ- मानवता ,सेवा,प्रेम,नम्रता,सहनशीलता,आदि को समर्पित हुए बिना हम अपना व दुनिया का भला नहीँ सोँच सकते.
हालाँकि रिश्ते स्थूल हैँ लेकिन प्रबन्धन के लिए अति आवश्यक हैँ.रिश्तोँ मेँ से 'माँ' ऐसा रिश्ता है जो सभी रिश्ते पर भारी पड़ता है. अपनी भारतीय संस्कृति तो गृहस्थाश्रम को छोड़ प्रत्येक आश्रम मेँ स्त्री को 'माँ' की तरह सम्मान देने की बात करती है.यहाँ तक कि वानप्रस्थ व सन्यास आश्रम मेँ अपनी पत्नी तक को 'माँ' की तरह सम्मान देने की बात करती है.क्या कहा ? पत्नी को भी 'माँ'की भाँति
सम्मान.....?! झूठे भारतीय संस्कृति प्रमियोँ का क्या कहना ?समझना चाहिए कि भारतीय संस्कृति मेँ'काम' सिर्फ सन्तान करने के लिए ही बताया गया है.
<www.akvashokbindu.blogspot.com>

Tuesday 8 February, 2011

14 फरबरी : वेलेन्टाइन डे !


Sent: Tue, 08 Feb 2011 20:48 IST
Subject: 14 फरबरी : वेलेन्टाइन डे !
इस धरती पर प्रेम है जो न, वह ब्रह्म लोक मेँ भगवान ही है.

क्या कहा ?भगवान है?

भाई,सब नजरिये का खेल है.तुम किस प्रेम को प्रेम समझ रहे हो?प्रेम किसी का खून नहीँ बहाता किसी को उदास नहीँ करता.प्रेम दूसरों के लिए जीना सिखाता है.अपने लिए दूसरे को कष्ट देना नहीं.यह सिर्फ एक दिन इजहार के लिए नहीँ है.
मेरी नजर मेँ पर्वोँ का कोई महत्व नहीँ है.बस इतना कि इस बहाने कुछ दुकानदारोँ का आमदनी बढ़ जाती है ,जीवन मेँ कुछ हट कर ऐसा हो जाता है जो रोज मर्रे की उबाऊ जिन्दगी से उबारता है और इन्सान इन्सान के मध्य सम्बन्धों की दृष्टि से कुछ नयापन आ जाता है .लेकिन जीवन की सच्चाई इआस सब से हट कर है.इन पर्वोँ उत्सवोँ का जो उद्धेश्य होता है ,उस प्रति हम सब अब संवेदनहीन ही हो चुके हैँ.जो सब
दिखता है वह सब स्थूल है लेकिन भाव मनस जगत से ..?भौतिकवादी भोगवाद मेँ लोगोँ के जीवन से मनस से प्रेम विदा है लेकिन प्रेम दिवस मनाने चले हैँ,प्रेम जीवन क्योँ नहीँ मनाते?
सभी भावनाओँ मेँ एक भावना अधिकार जमाये हुए है ,सिर्फ काम.धर्म अर्थ काम मोक्ष के बीच सन्तुलित सम्बन्ध नहीँ रह गया है. अब काम ही प्रेम है,सेक्स इज लव.प्रेम तो सर्फ मन का एहसास है ,मन की स्थिति है.प्रेम जब व्यक्ति का जागता है तो व्यक्ति की अपनी इच्छाएं खत्म हो जाती हैँ,दूसरे की इच्छाएँ अपनी इच्छाएँ हो जाती हैँ.
बात है इन पर्वोँ के विरोध की ,शिव सेना ,विश्व हिन्दू परिषद,आदि के द्वारा इन पर्वोँ का विरोध सिर्फ अराजक है .जो काम अफगानिस्तान मेँ तालिबान कर रहा है वही काम यहाँ यह कर रहे हैँ.वहाँ मुस्लिम जनता पर तालिबान के द्वारा काफी कुछ थोपा जाना तथा यहाँ शिव सेना,विश्व हिन्दू परिषद ,आदि द्वारा वेलेन्टाइन डे, आदि
का विरोध एवं इस विरोध मेँ युगल प्रेमियोँ के साथ किए जाने वाले व्यवहार अराजक हैँ.यह सब उन्मादी व साम्प्रदायिक है.यदि ये वास्तव मेँ जागरुक हैँ तो खुलेआम जहर बेंचने वालोँ के खिलाफ बिगुल क्योँ नहीँ बजाते?गुटखा ,बीड़ी, सिगरेट, शराब,खाद्य मिलावट,आदि व जाति व्यवस्था,छुआ छूत,आदि के खिलाफ बिगुल क्योँ नहीँ बजाते? आर्य समाज के विरोध मेँ हो तो उसके खिलाफ बगाबत क्योँ नहीँ करते?यदि
आर्य समाज के समर्थन मेँ हो तो समर्थन मेँ आन्दोलन क्योँ नहीँ खड़ा करते?क्या वास्तव मेँ ये हिन्दू समाज का भला चाहते है ? तुम्हें हिन्दू होने पर गर्व है लेकिन हमेँ नहीं और अभी अपने को आर्य होने पर भी नहीँ. आर्य का अर्थ है-श्रेष्ठ,मैँ अभी श्रेष्ठ कहाँ ? धन्य,धन्य .....?!
ओम आमीन ! ओम तत सत!!

बसंत पञ्चमी :बासन्ती पर्व

----Forwarded Message----
From: akvashokbindu@yahoo.in
To: akvashokbindu@yahoo.in
Sent: Sat, 05 Feb 2011 21:50 IST
Subject: बसंत पञ्चमी :बासन्ती पर्व

"मेरा रंग दे बसन्ती चोला " इसे गाने वाले अब भी मिल सकते हैँ लेकिन बासंती रंग मेँ अपने अन्तरंग व रोम -रोम को कौन रंग देना चाहता है? कलर थेरेपी के विशेषज्ञ जानते होँगे कि बासन्ती रंग का क्या महत्व होता है ?

बासन्ती क्रान्ति मेँ रमना आवश्यक है.क्योँ ऐसा क्योँ ?ऋग्वैदिक काल के बाद धर्म की मसाल लेकर चलने वाले ही भटक गये. भगवान की अवधारणा ही बदल गयी. सिन्धु के इस पार तब तीन क्रन्तियां हुईँ-जैन क्रान्ति,बौद्ध क्रान्ति और वेदान्त क्रान्ति ;सिन्धु के उस पार यहूदी ,पारसी,आदि .आदिगुरु शंकराचार्य आये,उन्होँने कहा आत्मा परमात्मा एक ही है.


भगवान की अवधारणा पर हिन्दू अब भी विचलित है. भगवत्ता पर बासन्तीत्व पर हिन्दू समाज अब भी अन्ध मेँ है.जनवरी ,2011:अखण्ड ज्योति पत्रिका मेँ पृष्ठ 53पर ठीक ही लिखा है -

" हिन्दू धर्म मेँ भगवान के जिसने धुर्रे बिखेरे दिए हैँ,उसका नाम है-वेदान्त.वेदान्त क्या है? 'अयमात्मा ब्रह्म'; 'प्रज्ञानं ब्रह्म'; ' चिदानंदो3हम्';'सच्चिदानंदो3हम्' ;' अहं ब्रह्मास्मि'; ' तत्त्वमसि' ; तात्पर्य यह कि आदमी का जो परिष्कृत स्वरुप है,आदमी का जो विशेष स्वरुप है,वही भगवान है."



मेरा मानना है कि जो मोक्ष को प्राप्त है वही भगवान है. श्री अर्ध्दनारीश्वर शक्तिपीठ ,नाथ नगरी,बरेली(उप्र)058102301175 के संस्थापक श्री राजेन्द्र प्रताप सिँह (भैया जी) का भी कहना है


" जब हर आत्मा परमात्मा के बास होने की बात कही जाती है तो परमात्मा अलग कहां से आयेगा."युग क्रान्ति का यह स्वपन कैसे साकार हो ?

शिवनेत्र अर्थात दोनोँ आंखोँ के बीच जा कर जब तक हमारा ध्यान टिक नहीँ जाता तब तक हम बासन्तीत्व का आनन्द नहीँ उठा सकते,जहाँ पर सत शेष रह जाता है.काम, क्रौध, मद ,लोभ से ऊपर उठ कर जब तक हमारी ऊर्जा सक्रिय नहीँ होती तब तक हम आनन्द को प्राप्त नहीँ हो सकते.ऐसे मेँ प्रकृति व नारी शक्ति को माँ के रूप मेँ दर्जा देकर ही हम भगवत्ता को प्राप्त हो सकते है.माँ का एक रुप है सरस्वती जो कि
ज्ञान का मानवीकरण है.नर हो या नारी यदि वह माँ मय है .बस,उसको प्रकाश मेँ लाना है. युगगीता के अनुसार वैश्या : अर्थात दुर्बल मन व शूद्रा:अर्थात दुर्बल बुद्धि वाले भी क्रमश: घोर रजोगुणी ( स्त्रियाँ वैश्य )व घोर तमोगुणी (शूद्र चांडाल योनि ) भगवत्ता को प्राप्त हो सकती है यदि अन्तर्मुखी हो कर अपने अन्दर बैठे परमात्मा की ओर ध्यान केन्द्रित किया जाए.

अशोक कुमार वर्मा 'बिन्दु'