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Sunday 27 February, 2011

एक यह भी ब्लोग:क्रान्ति दूत


               ब्लोगर से जुड़े मुझे एक वर्ष से अधिक समय होने को आया और इण्टरनेट प्रति रुचि पैदा हुई. अपनी अभिव्यक्ति को मंच मिला.कक्षा आठ से लेखन कार्य मेँ लगा हूँ.लगभग पचास पुस्तकों की सामग्री समीप मैजूद है.स्थानीय पत्र पत्रिकाओं के अलावा कहीँ प्रकाशित नहीँ हो पाया.कम से कम इण्टरनेट ने मुझे विश्व स्तर पर अभिव्यक्ति के लिए एक मंच तो दिया. मेरे मिलने वाले कुछ व्यक्तियों का कहना है कि मुट्ठी भर लोग तो ही सिर्फ जुड़े हैँ इण्टरनेट से.हमेँ भी क्या चाहिए?कुछ लोगोँ का ही साथ चाहिए.जो हमारे लाइफ मिशन के खिलाफ व हमारे असहयोगी हैँ उनकी नजर में हम यदि बेहतर नहीँ हैँ तो क्या ?


किसी संस्था ने रिसर्च कर रखी है कि
कामकाजी बुद्धि का अभाव होता है अतिबुद्धिवादी लोगों व कुछ प्रतिभाशाली व्यक्तियों मेँ.ओशो ने भी कहा है कि अन्तर्मुखी की सघनता व्यक्ति को स्थूल से कर्म मेँ व्यवधान ला देती है.रामकृष्ण परमहंस को निन्यान्वे प्रतिशत लोग पागल ही समझते थे.वे अपनी अन्तर्मुखिता मेँ अपने शरीर के संचालन व नियन्त्रण से शून्य हो जाते थे.आचार्य श्री राम शर्मा का कहना है कि जीवन मेँ एकान्त के क्षण महापुरुष होने की भी सम्भावनाएं रखता है.



अन्तर्मुखी व्यक्ति के लिए भीड़ प्रतिकूल होती है.ओशो ने कहा है कि व्यक्ति का धर्म व्यक्ति को भीड़ से अलग करता है.क्योंकि भीड़ का कोई धर्म नहीं होता.भीड़ तो सम्प्रदायों मेँ जीती है.



अभी तक का मेरा जीवन...



बचपन से ही मैने अपने को अपने परिवार ,अपनी जाति, अपने मजहब, आदि मेँ अपने को अलग थलग पाया है.जब भी मैने अपने करीब किसी को पाया है तो वे यादव जाति से थे या मुसलमान थे.



अपना कौन होता है......



स्व का अर्थ होता है आत्मा और परमात्मा.इसके सिबा कौन अपना होता है?जिससे हमारे धर्म का सम्मान व रक्षा हो वही अपना है.वैसे धर्म के रास्ते पर न कोई अपना होता है न पराया.



यह क्या क्रान्ति से कम है......




बचपन से न जाने कितनी बार बिखरा हूँ न जाने कितनी बार बना हूँ?मेरे उत्साह मेरी क्षमता को कमजोर करने वाले वे थे जो हमारे हितैषी बनते थे. ऐसे मेँ परिवार ,जाति व मजहब की दीवारें तोड़ जब मैं आगे बढ़ा तो चैन मिला.


इण्टरनेट व मै......



अभी एक दैनिक समाचार पत्र अमीर खुसरो मेँ एक लेख'जनक्रान्तियों में दिखते इण्टरनेट के फिंगर प्रिंट' प्रकाशित हुआ .जिसमे लिखा गया-




" तीस साल से इमरजेंसी लगाकर बैठी मुबारक की सरकार के खिलाफ पहले लोग 'इस पार या उस पार ' के अन्दाज मेँ तहरीर चौक पर जमा क्योँ नहीं हुए?शायद पहले मिस्र की जनता को जोड़ने वाला वह माध्यम नहीं था जो पिछले पन्द्रह सोलह सालों से आम विश्व नागरिक को संचार और सूचना की ताकत से लैस कर रहा है.इंटरनेट और उसके ढेर सारे अनुप्रयोग -फेस बुक,यूट्यूब,ब्लागिंग ,टिवटर,गूगल,याहू और ऐसी ही दूसरी नेट आधारित सेवाएं जिन्होंने आम आदमी को अभिव्यक्ति की ताकत दी है.असल दुनिया मेँ जो दो लफ्ज भी नहीं बोल सकता था ,वह वर्चुअल दुनिया मेँ कुछ भी कहने सुनने और करने को लगभग आजाद है."



वैचारिक क्रान्ति की तो हर पल आवश्यकता है.प्रजातन्त्र को यदि मजबूत होना है यदि मानवता को मजबूत करना है तो फिर हर व्यक्ति जो दर्द छिपाए बैठा है,अपने अन्दर जो भड़ास छिपाए बैठा है उसे बाहर आना ही चाहिए.क्रान्ति के लिए आधुनिक तकनीक व ज्ञान सराहनीय रहेगा.राजा राममोहन राय ,ज्योतिबा फूले,छत्रपति शाहू जी महाराज ,आदि जैसे यदि ब्रिटिश शासन मेँ न हुए होते तो इनके साथ क्या हुआ होता?यदि कबीर,रैदास,आदि मुस्लिम काल मेँ न हुए होते तो इनके साथ क्या हुआ होता.
हिन्दू समाज को सबसे बड़ी लड़ाई अपनोँ से ही लड़नी है नहीं तो.....मुझे अपने आसपास किसी हिन्दू मेँ वह जज्बा नहीं दिखाई देता जो
कम से कम अपने समाज का अहित न होने दे ? किसी ने ठीक ही कहा है कि वही कौमेँ आगे बढ़ती हैँ जिसके अन्तर्गत आने वाले व्यक्ति अपनी कौम के लिए त्याग करते है.



अफसोस की बात है कि मैँ अपने परिवार जाति मजहब व जिस संस्था में काम करता हूँ ,वहाँ लोग मुझे अपना रास्ता बदलने की बात कहते हैँ.हमेँ इन लोगोँ के आधार पर नहीँ,अपने धर्म व अपने महापुरुषोँ के बताए रास्ते पर चलना है.


क्रान्ति दूत बनने का प्रयत्न करते रहना है. अरविन्द झा जैसे ब्लागर मित्रों से वैचारिक परिमार्जन होता रहेगा.



संस्थापक,


मानवता हिताय विकास मंच समिति उ. प्र.

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