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Friday 15 July, 2011

यज्ञ व सगुण परिपाटी म��ँ निर्गुण आर्यत्व

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From: Akvashokbindu <akvashokbindu@gmail.com>
To: <akvashokbindu@yahoo.in>
Date: गुरुवार, 14 जुलाई, 2011 11:09:41 पूर्वाह्न GMT+0530
Subject: यज्ञ व सगुण परिपाटी म��ँ निर्गुण आर्यत्व

प्राचीन योरोप साहित्य मेँ एक शब्द है-सील.जो अंग्रेजी के सी,आई,ई व एल अक्षर से मिल कर बना है.जिसका अर्थ है-स्वर्ग या आकाश.योरोप की पुस्तकों में भी स्वर्ग के परिपेक्ष्य मेँ कश्मीर तिब्बत और चीन के कुछ भाग की ओर संकेत किया गया है.भारतीय ग्रन्थों मेँ भी स्वर्ग के लिए कश्मीर तिब्बत की ओर संकेत मिलता है.योग और ध्यान के परिपेक्ष्य मेँ तिब्बत एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है और इस सम्बंध मेँ वह काफी युगों से अग्रणी है.प्रथम सभ्य मनुष्यों का केन्द्र भी तिब्बत माना जाता है.स्वर्गपुत्र या निर्गुण पुत्र या आर्य या देवता इसी भू भाग से सम्बन्ध रखते हैँ.इस भूभाग को ब्रह्म देश भी कहा गया है.ये स्वाध्याय अर्थात आत्मसाक्षात्कार को विशेष महत्व देते थे.
साधारण मनुष्य कर्मकाण्डों में व्यस्त रहे लेकिन कुछ ही वास्तव में मनप्रबन्धन से जुड़ अध्यात्म व अत्मसाक्षात्कार से जुड़े रहे हैँ.सभ्य मनुष्यों अर्थात आर्यों का प्रभाव पहाड़ों से आकर धरती पर हुआ तो ये धरती पर स्वर्गपुत्र(आकाश पुत्र या ईश्वरपुत्र)कहलाने के साथ धरती के मनुष्यों के लिए सम्माननीय बन गये क्योंकि पहाड़ों से उतरे ये लोग ज्ञान के क्षेत्र मेँ काफी आगे थे...और इन लोगों के मैदानी जनों से संघर्ष भी हुए.इन पहाड़ी जनों के मैदानी प्रसंशक शमन धर्म के कहलाये.योग को महत्वपूर्ण स्थान देने के साथ यह दमन के स्थान पर शमन को महत्व देते थे.इन्हीँ शमन धर्मियों मेँ कश्यप ऋषि ,चन्द्र(सोम),शुक्राचार्य,और्ब,आदि जैसे व्यक्तित्व उभर कर आये.आगे चल कर यही सोमी कहलाये.


एक ओर आत्मसाक्षात्कार दूसरी ओर साधारण जन मेँ यज्ञ को महत्व देने वाले व प्रकृतिअनुशीलन तथा प्रकृतिक घटनाओँ से भयभीत लोग ईश्वर की स्थूल कल्पना में खो गये.ऋग्वैदिक शब्द 'यल्ह'जिसे ईश्वर व यज्ञ दोनों के लिए प्रयोग किया गया,मात्र ईश्वर के लिए प्रयोग किया जाने लगा.पितर पूजा को महत्व के साथ पहाड़ों से उतरे प्रथम जनों को मैदानों में,विशेष रुप से अरब क्षेत्र में मूर्ति बना कर पूजा जाने लगा.सोमी के ही एक इब्राहिम बुतपरस्ती के कारण पैदा हुए विकारों को देख परेशान हो उठे,जो निर्गुण के सगुण रुप से परेशान हो उठे.मनप्रबंधन से हट कर लोग सिर्फ स्थूल प्रबंधन में लीन थे.उन्होने देखा कि लोग कैसे बुतपरस्ती मेँ योग ध्यान आत्मसाक्षात्कार एवं धार्मिकता(धर्म या सम्प्रदाय नहीँ)से दूर होते जा रहे हैँ.इब्राहिम के पुत्र इसहाक की पीढ़ी मेँ हजरत दाऊद व हजरत मूसा पैदा हुए,हजरत मूसा व दाऊद को मानने वाले यहूदी कहलाये.हजरत मूसा ने यज्ञ में पशु बलि की महत्ता को बनाये रखा.बुतपरस्ती,यज्ञ में बलि एवं अन्य अव्यवस्थाओं ने इधर जैन व बुद्ध को पैदा कर दिया था.उधर सीरिया क्षेत्र मेँ ईसा मसीह.इब्राहिम के दूसरे पुत्र इस्माइल की पीढ़ी में हजरत मोहम्मद पैदा हुए.अरब मेँ बुतपरस्ती व अन्य विषमताओं के खिलाफ उठ खड़े हो हजरत मोहम्मद ने निर्गुण धारा मेँ जान डालने के लिए आर्यत्व संभाला.हजरत मोहम्द प्रतिवर्ष रमजान का मास सपरिवार हीरा की गुफा में ध्यानस्थ हो बिताते थे.जहां ही उन्हेँ इलहाम हुआ अर्थात उनके लिए यल्ह(इलाह)एक आम बात हो गयी अर्थात वे ईश्वरत्व से जुड़ गये.

सनातन धर्म यात्रा के पथ पर प्रखर प्रहरी कितने होते है? जीवों मेँ चेतना के दोनों अंश-परमांश व प्रकृतिअंश प्रति समदृष्टि रखते हुए शरीफ व ईमानदार होने को यदि किसी सम्प्रदाय के व्यक्ति अपने अपोजिट मान लेँ तो इसमेँ किसका दोष है?जाति ,मजहब,आदि के नाम पर मन में द्वेष भाव रखने वाले कदापि अपने ईमान के पक्के नहीं हो सकते.अपने जाति सम्प्रदाय से निकल कर जो मानव व प्रकृति प्रति दया व सेवा भाव नहीं होता वे कैसे सनातन धर्म यात्रा के प्रखर प्रहरी हो सकते हैं?परमात्मा व प्रकृति के विरुद्ध जा कर स्वधुन व निर्जीव वस्तुओं को ज्यादा महत्व देना ईमान नहीं है.

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