Powered By Blogger

Friday 20 May, 2011

विवाह संस्था के दंश !



आज के भौतिक भोगवाद में शादी तय होने व करने का परम्परागत तरीका इंन्सान या रुहानी मूल्यों के खिलाफ अपना मंच खड़ा करता जा रहा है.भौतिक चमक धमक ,सामाजिक मर्यादा,प्रदर्शन,खानदानी इज्जत,आदि के सामने त्याग ,संयम,धैर्य,समर्पण,आदि का भाव खत्म हो रहा है.अच्छे इन्सान की पहचान उसके कपड़े,गाड़ी,बंगला,सम्पत्ति,आमदनी,आदि के आधार पर होता है.इसके ही साथ साथ हम अपना एक काल्पनिक जगत भी रखते है.जिसके आधार पर हम रिश्ता तय करते वक्त सामने वाले का आंकलन नहीँ करते.हम सामने वाले के शरीर,भौतिक स्तर ,बातचीत,पद,दहेज लेन देन,शादी के खर्च,आदि के आधार पर रिश्ता तय कर लेते हैं,लेकिन हम नहीं जानते कि हमारे अन्दर एक काल्पनिक व मानसिक जगत भी है;वह जरुरी नहीं कि सामने वाले से भविष्य में मेल खाये.इसी कारण भविष्य में तनाव की स्थिति पैदा होती है.हम से तो अच्छे वैदिक कालीन जंगली व आज के आदिबासी हैं.हम तो बाहर और अन्दर अलग अलग मूल्य छिपाए होते है.शादी तय करते वक्त हम जिन मूल्यों के आधार पर शादी तय करते हैं,शादी के बाद तलाक व टकराव के आधार के मूल्य अन्य हो जाते हैं.यह दोहरे मूल्य क्यों?शादी तय होने के वक्त ही उन मूल्यों को महत्व देना क्यो नहीं जिन मूल्यों के कारण तलाक व टकराव की स्थिति हो जाती है.अनेक व्यक्तियों के द्वारा एक ही व्यवहार व कर्म करने के पीछे भी सबका नजरिया अलग अलग हो सकता है.इस लिए कुछ विशेषज्ञोँ ने शादी से पूर्व युवक युवतियों के बीच काउंसलिंग आवश्यक वतायी है,जिसमें एक दूसरे के नजरिये व जीवन लक्ष्य को समझा जा सके.सामञ्जस्य की भी स्थितियां होती हैं.जिससे सामञ्जस्य नहीं होने की सम्भावनाएं छिपी हैं,लेकिन हम उसको लेकर उम्मीदों की दुनिया सजोये रिश्ता तय कर बैठते हैं तो क्या होगा ? अभी जल्द नई दिल्ली से एक समाचार मीडिया में आया कि दिल्ली महिला आयोग के अनुसार इस महानगर में हर साल करीब एक लाख तीस हजार शादियां होती हैं और दस हजार तलाक होते हैं.एक अनुमान के मुताबिक पिछले पांच सालों में तलाक लेने वालों की संख्या दोगुनी हो गयी है.शादी के प्रति अब लोगों का मन उचटने लगा है.जीवन के लिए महत्वपूर्ण है लक्ष्य समूह(वे लोग जो हमारे विचारधारा को आगे बढ़ाने वाले व सहयोग करने वाले हैं).वैदिक साहित्य में शादी का उद्देश्य धर्म माना गया है,जिससे कि हम माया ,मोह,लोभ,काम,क्रोध,आदि को प्रशिक्षित कर अपने मृत्यु के करीब शान्त मन में आ सकें लेकिन हम तो जीवन पर्यन्त माया ,मोह ,लोभ ,आदि में फंसे रहते हैं.शान्ति व सन्तुष्टि की लालसा रखते हुए भी शान्ति व सन्तुष्टि से दूर हो जाते हैं.ओशो ने कहा है कि जो संसार की वस्तुओं से सुख की कामना रखता है,वह मूर्ख है.एक मात्र दया,सेवा,अध्यात्म ,योग व आयुर्वेद /प्रकृति को स्वीकार करने से ही जीवन को सुखमय बना सकते हैं.

No comments: