Sunday 14 November, 2010
14 नवम्बर : बाल दिवस
" घर से मंदिर है बहुत दूर, चलो यूं कर लेँ
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए"
-मशहूर शायर निदा फाजली के ये शब्द अपने अन्दर जीवन की फिलासफी छिपाए हुए हैँ.वास्तव मेँ भगवान का रुप है बालक,ऐसा मैने एक साल से ढाई साल के बीच महसूस किया है.यह अवस्था एक स्वतन्त्र जीवन है.मनुष्य का अपना क्या है?कुछ भी तो नहीँ,वह परतन्त्र है अपनी सोँच के ढंग के कारण.मर्यादाओँ,रीति रिवाजोँ,भौतिक एन्द्रिक लालसाओँ ,कूपमण्डूकता,भ्रम,आदि मेँ जीवन की स्वतन्त्रता खो गयी है.वर्तमान
मेँ जीना ही जीवन है,बिना किसी दबाव के सहज भाव से वर्तमान मेँ जीना ही स्वतन्त्रता है.अरविन्द घोष ने कहा है कि 'आत्मा ही स्वतन्त्रता है .'शिशु अपनी आत्मा के करीब होता है लेकिन उम्र बढ़ने के साथ साथ धीरे धीरे सांसारिकता मेँ प्रवेश करता जाता और अपनी आत्मा से दूर होता जाता है.इसलिए मैँ कहता रहा हूँ कि शिक्षा के जगत मेँ भारी क्रान्ति की आवश्यकता है.भौतिकवादियोँ व धन लोलुपुओँ का
शिक्षा जगत मेँ प्रवेश घातक है.
जय प्रकाश भारती कहते हैँ - " प्रकृति अपना जीर्ण भाव छोँड़ कर बालक के रुप मेँ पुन: पुन:नवीन होती है. काल के जरा जीर्ण और जड़ बाड़े से मुक्ति पाने का रहस्यमय प्रयोग बालक ही है.उसके माध्यम से नित नूतन अमृत झरना झर रहा है.बालक के भीतर अनन्त सम्भावनाओँ के बीज हैँ.विश्व मेँ ऐसा कुछ भी नहीँ है,जो बीज रुप मेँ बालक के भीतर न हो.समाज मेँ बदलाव की शुरुआत बालक से ही हो सकती है.मानव विकास और
प्रगति की गीता पहला अध्याय शिशु और बालक के बिना नहीँ लिखा जा सकता."
दुनिया का श्रेष्ठतम कार्य व कर्त्तव्य अध्यापक का है.अध्यापक समाज व बालक के बीच का आदर्श द्वार है.अध्यापक समाज का मस्तिष्क है.जैसा अध्यापक होगा वैसा समाज का भविष्य होगा.ओशो कहते हैँ -"शिक्षा मेँ क्रान्ति आवश्यक है." लेकिन कैसे?कुछ वर्षोँ से शिक्षा जगत व बालकोँ के साथ जो होना शुरु हुआ है,वह सब उचित ही नहीँ है.जिसके लिए हर हालत मेँ दोषी अध्यापक ही है.वह ही ज्ञान के प्रति
ईमानदार नहीँ रह गया है.उसकी भी सोँच आम आदमी से भी गिरी हुई हो सकती है.
बाल प्रेमियोँ व शिक्षकोँ को ओशो की 'शिक्षा मेँ प्रयोग' ,'शिक्षा मेँ क्रांति ',आदि व पी. के. आर्य की पुस्तक 'बच्चोँ की प्रतिभा कैसे निखारे' पुस्तकेँ व बाल मनोविज्ञान सम्बन्धी पुस्तकोँ का अध्ययन करना चाहिए तथा कोरे निज स्वार्थ मेँ ही न जी कर परिवार व समाज के प्रति समर्पण के प्रदर्शन के साथ जीना चाहिए.आज का अध्यापक अब भी यह मानने को तैयार है -"भय बिन होय न प्रीति " . मेरा
मानसिक अनुभव यह कहता है कि भय व प्रीति का अपना अपना पृथक पृथक अस्तित्व है.जहाँ भय है वहाँ प्रीति नहीँ व जहाँ प्रीति है वहाँ भय नहीँ.अनुशासन के नाम पर बालकोँ मानसिक व शारीरिक दण्ड व कष्ट देना अमानवीय है.वैदिक दर्शन मेँ हर समस्या निदान है ,इसका भी.प्रवेश प्रक्रिया अति सशक्त होना आवश्यक है .शिक्षण संस्थाओँ मेँ छात्रोँ की भीड़ व आर्थिक आय की लालसा ने शिँक्षा का स्तर गिराया है.
आज डायबिटिज दिवस भी है.मैँ कहना चाहूंगा कि बच्चे भी बहुतायत मेँ डायबिटीज का शिकार हैँ और 70 प्रतिशत से भी अधिक बच्चे अस्वस्थ हैँ.क्या माता पिता बनने का अधिकार सभी को मिलना चाहिए?अपने शरीर को स्वस्थ रखने व सन्तुलित आहार देने मेँ असमर्थ हैँ ,ऐसे मेँ ऊपर से .....गर्भाधान संस्कार का ही स्वरुप बदल गया है.भैतिक भोगवाद का प्रभाव माता पिता के माध्यम से भी बच्चोँ पर पड़ रहा है. आज के
ही दिन सन 1889ई0मेँ जवाहर लाल नेहरु का जन्म हुआ था. जिन्होने अपना जन्मदिन बाल दिवस के रूप मेँ मनाना निश्चित किया.
नेहरू का मूल्यांकन करते हुए माइकल ब्रेचर ने लिखा है "नेहरु एक मनुष्य के रुप मेँ और राजनीतिज्ञ के रुप मेँ महापुरूष है.यदि महानता घटनाओँ के दिशा निर्देशन से मापी जाती है,अथवा लहरोँ के सिरोँ से ऊपर उठने मेँ है जनता के मार्ग दर्शन मेँ है और प्रगति के लिए उत्प्रेरक बनने मेँ है तो निश्चित ही नेहरु उस महानता के अधिकारी हैँ"
लेकिन....
कश्मीर मुद्दे पर अब भी नेहरु की आलोचना सुनने को मिल जाती है.
<http://www.slydoe163.blogspot.com/>
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment