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Monday 30 August, 2010

उग्रवाद के खिलाफ त्याग भावना

----Forwarded Message----
From: akvashokbindu@yahoo.in
To: akvashokbindu@yahoo.in
Sent: Fri, 27 Aug 2010 04:04 IST
Subject: उग्रवाद के खिलाफ त्याग भावना

मानव व्यवहारोँ का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि मानव अब भी मानसिक रूप से गुलाम है अर्थात द्वेषभावना,स्व शारीरिक-ऐन्द्रिक हित के लिए ही सिर्फ जातिवाद,साम्प्रदायिकता,क्षेत्रवाद,आदि का इस्तेमाल कर समाज की विविधता के अपमान मेँ हिंसा पर तक उतर आता है.यहाँ तक कि कुछ सत्तावादी इसका प्रयोग सत्ता प्राप्ति के लिए भी करते हैँ.सर्बजनहिताय उदारता अति आवश्यक है न कि स्व
शारीरिक व ऐन्द्रिक आवश्यकताओँ के लिए दूसरोँ को कष्ट देना.धर्म तो उदारता सिखाता है,जो धर्म के नाम पर हिँसा का सहारा लेते हैँ वे कदापि धार्मिक नहीँ हो सकते .इस धरती पर धर्म के नाम पर जितना अत्याचार हुआ है,शायद उतना अन्य के नाम पर नहीँ.ऐसे मेँ समाज या भीड़ के धर्म को मैँ धर्म नहीँ कह सकता.


प्राचीन काल से ही कश्मीर हिँसा का शिकार रहा है.मध्यकाल मेँ औरंगजेब काल मेँ शासकीय कर्मचारियोँ द्वारा अत्याचार की घटनाएँ होती रहीँ. अत्याचारोँ से प्रभावित कश्मीरी पण्डित गुरु तेगबहादुर सिँह के पास अपनी फरियाद ले कर आते रहे थे. एक दिन गुरु तेगबहादुर सिँह ने कश्मीरी पण्डितोँ की सभा बुलाई.जिसमेँ उन्होँने कहा कि त्याग व समर्पण के बिना कुछ भी सम्भव नहीँ.तब बालक
गोविन्द बोल बैठा -" पिता जी,"इसके लिए आप से ज्यादा अच्छी शुरुआत कौन कर सकता है." गुरु तेगबहादुर सिँह की आँखे खुल गयीँ.

मिशन या लक्ष्य के पक्ष या विपक्ष मेँ जाने बात बाद की है, अपने मिशन या लक्ष्य के प्रति कैसा होना चाहिए?इसकी सीख हमेँ गुरु गोविन्द सिँह सेँ लेनी चाहिए.जिनका जीवन कुरुशान (गीता) की कसौटी पर खरा उतरता है.समाज के सुप्रबन्धन के लिए त्याग व समर्पण आवश्यक है.

कश्मीर मेँ कश्मीरी पण्डितोँ के बाद अब अलगाववादी कश्मीरी सिक्खोँ पर अत्याचार करने मेँ लगे हैँ.दूसरी ओर देश के अन्दर कुप्रबन्धन , भ्रष्टाचार,आतंकवाद,नक्सलवाद,क्षेत्रवाद,जातिवाद,
साम्प्रदायिकता,
आदि ; इससे कैसे निपटा जा सकता है ?इसके लिए भी हमेँ कुरुशान(गीता) ,गुरू गोविन्द सिंह,आदि से सीख ले सकते हैँ.


अफसोस की बात कि अपनी धुन मेँ जीते जीते हम अपने परिवार को विखराव की स्थिति तक जब ले जा सकते हैँ,त्याग व समर्पण का पाठ नहीँ सीख सकते .घर से बाहर निकल कर सामूहिकता मेँ जीने धर्म के लिए त्याग,समर्पण,कानून,आदि की भावना मेँ जीना ऐसे मेँ काफी दूर की बात हो जाती है.ऐसे मेँ तीसरा फायदा उठाएगा ही.राजपूत काल से अब तक होता क्या आया है?यही तो होता आया है. जम्बूद्वीप (एशिया) से वर्तमान
भारत तक और फिर अब भी अलगाववाद ,उग्रवाद, क्षेत्रवाद से प्रभावित इस देश की वर्तमान स्थिति तक आने कारण मात्र क्या है?हमारे पूर्वज कितने भी योग्य रहे होँ लेकिन.....?हमारे मन आपस के लिए ही द्वेष भावना,मत भेद,आदि मेँ जीते आये हैँ.यहां तो कीँचड़ ही कीँचड़ है. हाँ ,यह जरूर है कि कीँचड़ मेँ कमल खिलते आये हैँ.भारत का अर्थ है-प्रकाश मेँ रत,धन्य!धन्य आध्यात्मिक देश!धन्य यहाँ धर्मिक लोग!धन्य
कृष्ण के अनुआयी!धन्य अपने को हिन्दू कहने वाले!कुरुशान (गीता) के संदेशोँ को नजर अन्दाज करने वाले.इनकी अपेक्षा तो आतंकवादी,अलगाववादी,आदि अप्रत्यक्ष रुप से कुरूशान(गीता) को आचरण मेँ उतार रहे हैँ और अपने लक्ष्य के लिए त्याग व समर्पण कर रहे हैँ.हम इससे भी सीख नहीँ ले सकते कि अफगानिस्तान मेँ अलगाववादियोँ से लड़ रहे सैनिकोँ को गीता का पाठ सिखाया जा रहा है,एक अमेरीकी
विश्वविद्यालय मेँ गीता का अध्ययन अनिवार्य कर दिया जाता है.


जन्माष्टमी के उपलक्ष्य पर हम यदि कुरुशान(गीता ) से यह सीख नहीँ ले सकते तो काहे को कृष्ण भक्ति....!?तब तो सच्चे भक्तोँ(दीवानोँ) को सनकी, पागल,आदि कह कर उपेक्षित करते हो.धन्य....!?तुम्हारी धार्मिकता तो सिर्फ धर्मस्थलोँ की राजनीति,जाति पात , साम्प्रदायिकता,छुआ छूत,आदि के आलावा और क्या सिखा सकती है?बस ,धर्म के नाम पर एक दो मिनट दे दिए फिर चौबीस घण्टे....खो जाता है धर्म.तब वे मूर्ख लगते
है जो कहते है कि सुबह से शाम तक हम जो सोँचते करते हैँ,वही हमारा धर्म है.


JAI HO ....OM...AAMEEN!

अशोक कुमार वर्मा'बिन्दु'


आदर्श इण्टर कालेज


मीरानपुर कटरा


शाहजहाँपुर उप्र

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