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Sunday 30 May, 2010

 Subject: प्रेम से साक्षात्कार !
प्रत्येक लोक मेँ प्रेम की बात है.जो इस धरती पर प्रेम है वही ईश्वरीय जगत मेँ भगवत्ता है.आत्मा स्वयं भागवत है,ईश्वर है.बताते हैँ कि गुप्त काल से पहले भगवान का अर्थ था-मोक्ष को प्राप्त व्यक्ति अर्थात आत्मा के स्वभाव मेँ अर्थात साँसारिकता मेँ अभिनय मात्र रहते हुए अपनी निजता मेँ जीना या अपनी स्वतन्त्रता मेँ रहना.अरविन्द घोष ने ठीक ही कहा है कि आत्मा ही स्वतन्त्रता है.निन्यानवे प्रतिशत व्यक्ति अपनी आत्मा मेँ नहीँ जीता.वह अपने मन मेँ जीता है जिसकी दिशा दशा इन्द्रियोँ ,शरीरोँ व सांसारिक वस्तुओँ की ओर होती है .किसी ने ठीक ही कहा है कि दो शरीरोँ मिलन या सांसारिक वस्तुओँ के भोग की लालसा काम है,जिसके प्रतिक्रिया मेँ किये जाने वाले कर्म चेष्टाएँ हैँ.प्रेम की सघनता आत्मीय है,जिसे प्राणी पा जाता है तो उसका अहंकार विदा हो जाता है और नम्रता आ जाती है.द्वेष खिन्नता आदि खत्म हो जाती हैँ.हमेँ ताज्जुब होता है ऐसी खबरेँ सुन कर कि असफल प्रेमी ने की आत्म हत्या,शबनम के एक तरफा प्रेमी ने की शबनम की हत्या,सन्ध्या उसकी न हो सकी तो किसी की भी न हो सकी,प्रेमी प्रेमिका ने एक साथ पटरी से कट कर दी जान,आदि.हमे तो यही लगता है कि अभी 99प्रतिशत लोग प्रेम की एबीसीडी तक नहीँ जानते.इन सब की कथाएँ 'प्रेम कथाएँ' नहीँ 'काम कथाएँ' थीँ.प्रेम आत्म हत्या नहीँ कराता,हिँसा नहीँ कराता,बदले की भावना नहीँ जगाता,उम्मीदेँ रखना नहीँ सिखाता,आदि.तुलसी दास आज के प्रेमियोँ जैसे होते तो उनसे क्या उम्मीद रखी जा सकती थी?किसी से प्रेम का मतलब यह नहीँ होता कि अपनी इच्छाओँ के अनुसार उसे डील करना या अपनी इच्छाएँ उस पर थोपना.प्रेम का मतलब है जिससे हमेँ प्रेम है वह जैसा भी है उसे वैसा ही स्वीकार करना.प्रेम मेँ जीने का मतलब अपनी इच्छाओँ मेँ जीना नहीँ है.आज किसी से प्रेम है कल किसी कारण उससे प्रेम खत्म हो जाए,वह प्रेम नहीँ.प्रेम किसी हालत मेँ खत्म नहीँ होता रूपान्तरित होता है.मैने अपने प्रेम से यही अनुभव किया है.प्रेम मेँ 'पाने'या 'खोने'से कोई मतलब नहीँ है;सेवा,त्याग व समर्पण से है.अपनी इच्छाओँ के लिए नहीँ उसकी इच्छाओँ के लिए जीना है.जिससे हमेँ प्रेम है,इसका मतलब यह नहीँ कि हम उसे पाना चाहेँ.यदि उसको न पाने से हम खिन्न उदास या अपराधी हो जाएँ तो इसका मतलब यही है कि हम प्रेमी नहीँ है.अरे! वह जैसे खुश वैसे हम खुश!वह हमेँ पसन्द नहीँ करती या करता तो क्या ?
हम किसी को चाहते चाहते खिन्न चिड़चिड़े आदि होने लगेँ तो इसका मतलब यही है कि हम जिसे चाह रहे हैँ उससे हमेँ प्रेम नहीँ है.अच्छा तो यही है कि हम सभी का सम्मान करेँ और जो हमेँ चाहेँ उनसे प्रेम करेँ.प्रेम मेँ तो हम तब है जब अहंकारशून्य होँ,नम्रता बिना हम प्रेमवान नहीँ.
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